राजा परीक्षित का जन्म #पांडवो के कुल में हुआ था जो बहुत बड़े धर्मनिष्ठ राजा थे। जब पांडवो ने हिमालय की ओर महाप्रयाण किया था तो राज्य का दायित्व परीक्षित को सौप दिया था। परीक्षित प्रजापालक एवं कर्तव्यनिष्ठ राजा थे। उंन्होने तीन अश्वमेध यज्ञ किये तथा कई धर्मनिष्ठ कार्य किये।
पुराणो के अनुसार चार युग निर्धारित है जो है सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, और कलयुग। माना जाता है कि द्वापरयुग कि समाप्ति तथा कलयुग का आगमन भगवान श्रीकृष्ण के बैकुण्ठ प्रस्थान के साथ हुआ।
कलयुग का #आगमनकैसे हुआ और उसका प्रभाव कैसे बढ़ा इसकी राजा परीक्षित से जुड़ी हुई कथा कई पुराणों के साथ #श्रीमद्भागवतपुराण में #वर्णित है।
जिस समय परीक्षित का राजकाल चल रहा था। एक बार राजा परीक्षित आखेट पर निकले हुए थे तभी उनके समक्ष मुकुटधारी शूद्र के रूप में कलियुग वहाँ आया।
उसी समय राजा परीक्षित वहीं पर से गुजर रहे थे। महाराज परीक्षित ने जोर से कहा- दुष्ट! पापी! तू कौन है? और इस तरह मेरा रास्ता रोकने का कारण??
कलियुग ने समय के अनुसार अपने आने का कारण सम्राट परीक्षित को बताया कि नियम के अनुसार यह मेरा युग है।
यह सुनकर राजा क्रोधित हुए कि मेरे जीवन काल में तू मेरे राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता, मेरी नजर में तुम एक अपराधी हो और तेरे अपराध का उचित दण्ड तेरा वध ही है।” उनके इन वचनों को सुन कर कलियुग भय से काँपने लगा।
इतना कह कर राजा परीक्षीत ने उस पापी शूद्र राजवेषधारी कलियुग को मारने के लिये अपने वाण का संधान किया।
कलियुग भयभीत होकर राजा परीक्षित के चरणों में गिर गया और त्राहि-त्राहि कहने लगा। सम्राट परीक्षित बोले “हे कलियुग! तू मेरे शरण में आ गया है इसलिये मैंने तुझे प्राणदान दिया। किन्तु अधर्म, पाप, झूठ, चोरी, कपट, दरिद्रता आदि अनेक उपद्रवों का मूल कारण केवल तू ही है। अतः तू मेरे राज्य से तुरन्त निकल जा और लौट कर फिर कभी मत आना।”
राजा परीक्षित के इन वचनों को सुन कर कलियुग ने कहा – कि हे राजन यह सारी पृथ्वी तो आपकी ही है और इस समय मेरा पृथ्वी पर होना काल के अनुरूप है, क्योंकि द्वापर समाप्त हो चुका है। कलियुग इस तरह कहने पर राजा परीक्षित सोच में पड़ गये। फिर विचार कर के उन्होंने कहा – “हे कलियुग! द्यूत, मद्यपान, परस्त्रीगमन और हिंसा इन चार स्थानों में असत्य, मद, काम और क्रोध का निवास होता है। इन चार स्थानों में निवास करने की मैं तुझे छूट देता हूँ।”
इस पर कलियुग बोला – “हे राजन! ये चार स्थान मेरे निवास के लिये अपर्याप्त हैं। दया करके कोई और भी स्थान मुझे दीजिये।” कलियुग के इस प्रकार माँगने पर राजा परीक्षित ने उसे पाँचवा स्थान ‘#स्वर्ण’ दिया। कलियुग इन स्थानों के मिल जाने से प्रत्यछ रूप से तो वहाँ से चला गया किन्तु कुछ दूर जाने के बाद अदृष्य रूप में वापस आकर राजा परीक्षित के स्वर्ण मुकुट में निवास करने लगा।
इसके बाद राजा परिक्षित शिकार के लिए आगे चले गए। वहां बहुत भटके और भूख और प्यास के मारे उनका बुरा हाल था । शाम के समय थके हारे वह शमिक ऋषि के आश्रम पहुंचे ऋषि उस समय समाघि में लीन थे। परिक्षित ने कहा कि हमें प्यास लगी है हमें पानी चाहिए यहां और कोई भी नही है क्या आप सुन रहे है हम राजा परिक्षित बोल रहे है हमें प्यास लगी है हमें पानी चाहिए आपको सुनाई नही देता क्या ऋषि उस समय समाघि में लीन थे राजा ने दो-तीन बार पानी मांगा परंतु ऋषि की समाघि नही टूटी।
राजमुकुट मैं बैठे कलयुग की प्ररेणा से उनकी सात्विक बुद्धि भ्रष्ट हो गई और उन्होने ऋषि को दंड देने का फैसला किया । परंतु राजा के अच्छे संस्कारो के कारण उन्होनें अपने-आप को उस पाप से रोक लिया । क्रोध वश उन्होने मरा हुआ सांप ऋषि के गले में डाल दिया । उस शमिक ऋषि का पुत्र शृंगी बडा ही तेजस्वी था उस समय वह नदी में नहा रहा था। दूसरे ऋषि कुमारों ने जाकर सारा वृत्तांत सुनाया कि किस प्रकार एक राजा ने उसके पिता का तिरस्कार किया है । उनकी बात सुनकर वह क्रोध से पागल हो गया और उसी क्षण नदी का जल अंजुली में भरकर राजा को श्राप दिया जिस अभिमानी और मूर्ख राजा ने मेरे महान पिता का घोर अपमान किया है वह महापापी आज से सांतवे दिन तक्षक नाग की प्रचंड विषाग्नी में जलकर भस्म हो जायेगा।
महल में वापस लौट कर आने पर जब राजा ने अपना मुकुट उतारा तो उनको अपनी गलती का बोध हुआ, लेकिन वहुत छमा प्रार्थना के बाद भी उन्हें श्राप से मुक्ति नही मिली, लेकिन सात दिन में पुण्यकर्म के लिए श्रीमद्भागवत कथा के श्रवण करने को ऋषि द्वारा बताया गया।