मंत्र की शास्त्रीय व्याख्या करने के लिए हमें भारत के अतीत में चलना होगा भारतीय ऋषियों के चिंतन ने सृष्टि कार्य से पा लिया था इस तथ्य मे सन्देह को कोई अवकाश नहीं है आज हमारा प्राचीन साहित्य मिल नहीं रहा है जो उपलब्ध है वह भी आधुनिक शिक्षा सभ्यता एवं तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण की अपेक्षा का शिकार होता जा रहा है इसलिए उसके अधिक समय तक जीवित रहने की भी आशा नहीं हैa विकसित होने की जीवनीय बनने की तो बात ही क्या।
सच तो यह है कि हमारा ज्ञान कर्ण परंपरा से चलता था गुरु अपने ज्ञान को शीशे को याद करा दिया करता था और शिष्य अपने शिष्य को कहने का कारण भी यही है श्रवण स्मरण से पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती थी इस सनातन रूप से चल रही ज्ञान की वैतरणी मे हरेक विचारक ने अपनी ओर से भी जोड़ा पर अपना नाम जोड़ने के मोह से दूर रहा यही आधार आज इस युक्ति के लिए प्रमाण बन रहा है कि व्यास एक ऋषि अवश्य थी पर उनकी शैली अधिक व्यापक थी व्यास के नाम पर प्रचलित ज्ञान सरिता में हर पीढ़ी ने हर मनस्वी और विचारक ने योगदान किया और व्यास को समर्पित कर दिया यह ठीक ऐसा ही हो रहा जैसे हिमालय से चल रही पतली सी धारा को सागर में मिलने तक मिलने वाली असंख्य जल धाराओं ने विशाल विपुल बना दिया पर नाम उसका गंगा ही रहा कर्ण परंपरा से आ रहे ज्ञानरूपी ब्रह्म नद का प्रभाव मुद्रण कला के विकास के साथ क्षीण महत्व का हो गया वर्षों पहले ऐसे व्यक्ति जिनको कई ग्रंथि याद थी उनको न लिपिबद्ध किया गया ने प्रकाशित किया गया और वह उनके साथ ही सदा सर्वदा के लिए चला गया जो ज्ञान लिपिबद्ध कर लिया गया था उसका भी विनाश बहुत बड़ी मात्रा में हुआ।
विदेशी आक्रांताओ ने बड़ी निर्ममता पूर्वक अमूल्य ज्ञान राशि की होली खेली अथवा मूर्ख वंशधरों के कारण दीमक व चुहों का भोजन बन गया अर्थ लोभी उत्तराधिकारीयों ने उसे अर्थ लाभ का साधन समझकर लोगों के हाथ बेच दिया विदेशों में आज भी भारत के मूल ग्रंथ सुरक्षित या स्वरक्षित है इसके साथ ही यह भी एक माननीय तथ्य रहा है कि भारतीय मनोवृति से किसी भी ज्ञान की परंपरा बनाने की अपेक्षा पात्र कुपात्र का दृष्टिकोण अधिक कट्टरता के साथ अपनाया गया है पात्रता विचार यद्यपि शास्त्रीय और व्यवहारिक दृष्टि से आवश्यक होता है फिर भी यह मानने लायक नहीं कि इतने बड़े देश में पात्रों की कमी रही हो रहस्य के ज्ञाता व्यक्तियों की शुद्र भावना ने शास्त्रों को ही अविश्वास एवं व्यवहार का शिकार बना दिया जहां परंपरा बनाकर उस विषय को जीवन दान देना चाहिए था oनवीनीकरण करना चाहिए था विकसित होने देना चाहिए थाs लोकहित को समर्पित कर देना चाहिए था मां ममता के वशीभूत होकर पात्र को देने में भी कृपणता दिखाई जिसका फलितार्थ हुआ।
ज्ञान की सरिता अंत सलिला हो गई आज की पीढ़ी के पाश्चात्य प्रेमी होने का दोस्त ऐसी मनोवृति वाली परंपरा को ही दिया जा सकता है अन्यथा हमारी प्रयोग ही व्यवहार से पोषित रहते तो भारत ही नहीं समस्त विश्व विज्ञान का सम्मान करता और भौतिकवादी जड़ विज्ञान आत्मवादी चेतन विज्ञान के साथ जुड़ा रहता तथा आज की है व्यापक विसंगति केवल अनुमान का विषय बनी रहती है kआज मंत्र को शास्त्रीय स्तर से उतरकर अविश्वास की भूमि पर नहीं खड़ा होना पड़ता वह हिमालय के अपार विस्तार और अभ्रंकष उच्चता के साथ नमस्करणीय रहता तो आज की भारतीय पीढ़ी को इस विषय के समझने समझाने के लिए इतनी कठिनता नहीं होती।
मंत्र चूंकि भारतीय विज्ञान है इसलिए इसके मूल से लेकर विन्यास विपाक तक भारतीय संस्कार लोच लहजा और विधि साधना भारतीय वातावरण के ही प्रतीक होंगे भारतीय आधार पर मंत्र शास्त्र का ज्ञान कराने के लिए हमारे पूर्व पुरुषों ने जो दिशा दर्शाई है वह आज की पीढ़ी के लिए भी अनिवार्य है अतः ऋषियों के वचनों आदेशों अनुदेशकों का विवरण विश्व की संपूर्णता के लिए उपादेय है।
संस्कृत देववाणी है और मंत्रों का निर्माण इसी भाषा में किया गया है संस्कृत के सुर भारती होने का प्रमुख कारण यह है इसकी सार्थकता, विश्व की कोई भी भाषा इतनी सक्षम नहीं है कि उसने प्रतीक के तीनों आयाम मुखर हो संस्कृत इस दृष्टि से समृद्ध तम और सर्वाधिक क्षमता संपन्न है hसंस्कृत का प्रतीक शब्द अपने आप में जीवंत प्रतीक है मुखर अस्तित्व है संस्कृत शब्दों का अर्थ सम्वत प्रमाण है योगिक अथवा व्याकरण छंद शब्दों का अर्थ उनके विश्लेषण एवं व्युत्पत्ति से स्पष्ट हो जाता है मंत्र शब्द का तात्विक अर्थ जान लेने से रहस्योद्घाटन हो जाएगा इसलिए सर्वप्रथम यह हम जानने की मंत्र शब्द की रचना किस प्रकार हुई है