जो अपना कल्याण चाहता है, वह किसीके भी प्रति बुरी भावना न करे । किसी भी प्राणीको बुरा न समझे । यह व्रत ले ले कि मैं किसीको भी बुरा नहीं समझूँगा, किसीका भी बुरा (नुकसान) नहीं करूँगा, और किसीका भी बुरा नहीं चाहूँगा । यह नियम ले लें; पक्‍का विचार कर लें ।

आपको कोई आदमी बुरा करता हुआ दीखता है तो क्या वह अपनी पत्‍नी, पुत्र आदिका भी बुरा करता है ? तात्पर्य है कि सर्वथा बुरा कोई हो ही नहीं सकता । पर सर्वथा भला हो सकता है । बुरा तो उसे ही कह सकते हैं, जो सर्वथा बुरा-ही-बुरा करता हो ।

स्वरूपमें बुराई नहीं है‒‘चेतन अमल सहज सुख रासी’ । सबका स्वरूप निर्दोष है । दूसरी बात, दूसरेको बुरा माननेका आपको क्या अधिकार है ? क्या आपको दूसरोंकी बुराई देखनेका अधिकार मिला हुआ है ? दूसरा आपके साथ बुराई कर रहा है तो क्या आपके द्वारा कभी किसीका बुरा नहीं होता ? अपनी बुराईको आप क्षमा कर देते हैं । वास्तवमें क्षमा दूसरोंकी होती है ।

किसीमें भी बुराईको स्थापना मत करो, न दूसरोंमें, न अपनेमें । अपनेको बुरा मानोगे तो आप बुरे हो जाओगे; क्योंकि ईश्‍वरका अंश होनेसे आप सत्यसंकल्प हो । रावण बुरा था तो क्या सबके लिये बुरा था ? बुरे-से-बुरे व्यक्तिमें भी भलाई होती है । रावणने वेदोंपर भाष्य लिखा था; ‘रावण-संहिता’ की रचना की थी ।

दूसरेको बुरा माननेसे हमारा, दूसरेका और संसारका नुकसान है । दूसरेको बुरा मानना अपराध है । अपराध पापसे भी भयंकर होता है । अपराध दण्ड भोगनेपर भी नष्‍ट नहीं होता, प्रत्युत जिसका अपराध किया है, उसके क्षमा करनेपर ही नष्‍ट होता है ।

किसीका बुरा करोगे तो उसका तो बुरा होनेवाला ही होगा, पर आपकी नयी बुराई हो जायगी ।

अपना कर्तव्य ही अपना ‘धर्म’ है । जिसे कर सकते हैं और जिसे करना चाहिये, वह ‘कर्तव्य’ होता है । जिसे कर न सकें और जिसे करना नहीं चाहिये, वह कर्तव्य नहीं होता । कर्तव्य कभी कठिन नहों होता । वास्तविक धर्मात्माको किसीकी गरज नहीं होती, प्रत्युत दुनियाको ही उसकी गरज होती है ।

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श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
(‘सागरके मोती’ पुस्तकसे)

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