कर्ण के कितने वीर थे इसका अदांजा इसी बात से लगा सकते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण भी कर्ण को अर्जुन से अधिक श्रेष्ठ मानते थे. कर्ण सूर्य पुत्र थे. कर्ण एक योद्धा और महान दानवीर थे. जब महाभारत का युद्ध आरंभ हुआ तो भगवान श्रीकृष्ण को मालूम था कि जब तक कर्ण दुर्योधन की तरफ से युद्ध करेगा तब तक पांडवों की विजय मुमकिन नहीं है.
भगवान श्रीकृष्ण को सताने लगी चिंता
भगवान श्रीकृष्ण कर्ण की क्षमताओं से परिचित थे. वे जानते थे कि कर्ण सूर्य पुत्र हैं. कर्ण का नाम कौरवों के सबसे शक्तिशाली योद्धाओं की सूची में सबसे अव्वल था. भगवान श्रीकृष्ण इस बात को भी जानते थे कि जब तक कर्ण के पास कुंडल और कवच है तब तक कर्ण को पराजित करना मुश्किल है. इस कारण भगवान श्रीकृष्ण को चिंता सताने लगी. भगवान कृष्ण के साथ देवराज इन्द्र को भी कर्ण की इस शक्ति के बारे में जानकारी थी.
इंद्र ने चली ये चाल
भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण को पराजित करने के लिए इंद्र के साथ एक योजना बनाई. कृष्ण ने इंद्र से कहा कि वे ब्राह्मण वेश में कर्ण के पास जाएं और दान में कुंडल और कवच की मांग करें. कृष्ण जानते थे कि कर्ण प्रतिदिन लोगों को दान किया करते थे. कर्ण प्रतिदिन की तरह सभी को कुछ न कुछ दान दे रहे थे. पक्ंित में वेश बदलकर खड़े इंद्र की जब बारी आई तो कर्ण ने उनसे पूछा आपको क्या वास्तु चाहिए. अपनी इच्छा प्रकट करो.
इंद्र ने दान में कर्ण से मांग लिए कुंडल और कवच
तब ब्राह्मण वेश में इंद्र ने कहा कि महाराज में आपकी ख्याति की चर्चा सुनकर आया हूं. आपकी दान वीरता की चर्चा पूरे लोक मे हैं. दान मांगने से पहले आपको वचन देना होगा तभी दान स्वीकार करुंगा. इस पर कर्ण ने हाथ में जल लेकर इंद्र को वचन दे दिया. तब इंद्र ने कर्ण से शरीर के कवच और कुंडल दान में मांग लिए. इंद्र की इस बात को सुनकर कर्ण बिना एक पल समय गंवाए कवच और कुंडल शरीर से अलग कर इंद्र को सौंप दिए. कुंडल और कवच को शरीर से अलग करते हुए कर्ण को बहुत पीड़ा हुई लेकिन कर्ण ने इसकी परवाह नहीं की और दोनों वस्तु इंद्र को सौंप दी.
कुंडल और कवच लेकर भागने लगे इंद्र
कर्ण के कवच और कुंडल लेकर इंद्र वहां से तुरंत अपने रथ पर सवार होकर भागने लगे क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि कर्ण को उनकी असलियत का पता चले. लेकिन जैसे ही वे कुछ दूर चले उनका रथ जमीन में धंस गया. रथ के रूकते ही आकाशवाणी हुई. आकाशवाणी ने इंद्र की इस हरकत पर क्रोध जाहिर किया और इस हरकत को छल का नाम दिया. आकाशवाणी ने कहा कि इंद्र ने कर्ण की जान को खतरे में डाला है. अब यह रथ यहीं धंसा रहेगा और इंद्र भी यहीं धंस जाएंगे. इस आकाशवाणी को सुनकर इंद्र भयभीत हो गए और क्षमा याचना करने लगे. तब फिर आकाशवाणी हुई अब तुम्हें दान दी गई वस्तु के बदले में बराबरी की कोई वस्तु देना होगी. इंद्र ने इस बात को स्वीकार कर लिया. तब इंद्र फिर से कर्ण के पास गए. लेकिन इस बार इंद्र ब्राह्मण के वेश में नहीं गए. कर्ण ने उन्हें आता देखकर बड़ी विनम्रता से पूछा देवराज आदेश करिए और क्या चाहिए.
कर्ण से नजरें नहीं मिला पाएं देवराज इन्द्र
इंद्र अपने आप को लज्जित महसूस करने लगे और बोले कि हे दानवीर अब मै लेने नहीं कुछ देने आया हूं. कवच-कुंडल को छोड़कर जो इच्छा हो मांग लीजिए. इस पर कर्ण ने कहा देवराज मैंने आज तक कभी किसी से कुछ नही मांगा और न ही मुझे कुछ चाहिए. कर्ण सिर्फ दान देना जानता है, लेना नहीं. तब इंद्र ने अपनी व्यथा कर्ण को बताई और कर्ण से कुछ भी मांगने का आग्रह किया. लेकिन कर्ण ने फिर वही उत्तर दिया. अंत में इंद्र को कर्ण के आगे लाचार होना पड़ा और इंद्र ने कहा कि वह बिना कुछ दिए तो वापिस नहीं जा सकते हैं, इसलिए इंद्र ने वज्ररूपी शक्ति कर्ण को प्रदान की. इंद्र ने कहा कि कर्ण तुम इसको जिसके ऊपर भी चला दोगे, वो बच नहीं पाएगा. लेकिन इसका प्रयोग सिर्फ एक बार ही कर पाओगे. इतना कहकर इंद्र वहां से चले आए. कर्ण ने उन्हें बहुत रोकने की चेष्टा की लेकिन इंद्र नहीं रूके. कर्ण ने इंद्र की दी हुई शक्ति रख ली.