योगविद्या का उद्भव हजारों वर्ष पूर्व हुआ , योग शिक्षा के अनुसार ” भगवान शिव ” को ही प्रथम योगी तथा आदिगुरु के रूप में देखा जाता है। कई हजार साल पहले हिमालय में कांतिसरोवर झील के किनारे पर अदियोगी ने अपने गहरे ज्ञान को पौराणिक सप्तऋिषियों को प्रदान किया।
ये ऋषि इस शक्तिशाली योग विज्ञान को एशिया, मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका सहित अनेकों भागों में लग गए। आधुनिक विद्वान हैरान हैं कि पूरे संसार की प्राचीन संस्कृतियों में गहरी समानता है। किन्तु केवल भारत मे ही योग परम्परा पूरी तरह से विकसित हुई। अगस्त्य सप्तऋषि जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की, ने एक मूल योग जीवन शैली के चारों और इस संस्कृति का निर्माण किया।
शिव को स्वयंभू इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वे आदिदेव हैं, जबकि धरती पर कुछ भी नहीं था सिर्फ वही थे, उन्हीं से धरती पर सब कुछ हो गया। तिब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर प्रारम्भ में उनका निवास रहा। वैज्ञानिकों के अनुसार तिब्बत धरती की सबसे प्राचीन भूमि है और पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था।फिर जब समुद्र का स्तर कम हुआ तो पृथ्वी के अन्य क्षेत्र प्रकट हुये।
शिव कहते हैं ‘ मनुष्य पशु है ‘- इस पशुता को समझना ही योग और तंत्र का प्रारम्भ है। योग में मोक्ष या परमात्मा प्राप्ति के तीन मार्ग हैं- जागरण, अभ्यास और समर्पण।
तंत्रयोग है समर्पण का मार्ग। जब शिव ने जाना कि उस परम तत्व या सत्य को जानने का मार्ग है, तो उन्होंने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु वह मार्ग बताया।
शिव द्वारा माँ पार्वती को जो ज्ञान दिया गया वह बहुत ही गूढ़-गंभीर तथा रहस्य से भरा ज्ञान था।
उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएँ हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों मे सम्मिलित हैं ।
भगवान शिव के योग को तंत्र या वामयोग कहते हैं। इसी की एक शाखा हठयोग की है। भगवान शिव के अनुसार – ‘ वामो मार्ग: परमगहनो योगितामप्यगम्य:’
अर्थात वाम मार्ग अत्यन्त गहन है और योगियों के लिए भी अगम्य है।
शिवयोग में धारणा, ध्यान और समाधि अर्थात योग के अंतिम तीन अंग का ही प्रचलन अधिक रहा है।
भगवान शिव
शिव को देवों के देव कहते हैं, इन्हें महादेव, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है। तंत्र साधना में इन्हे भैरव के नाम से भी जाना जाता है |
वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धाङ्गिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र कार्तिकेय और गणेश हैं, तथा पुत्री अशोक सुंदरी हैं। शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है। शिव के गले में नाग देवता विराजित हैं और हाथों में डमरू और त्रिशूल लिए हुए हैं। कैलाश में उनका वास है। यह शैव मत के आधार है | इस मत में शिव के साथ शक्ति सर्व रूप में पूजित है |
भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है। भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।
शिव स्वरूप
शिव अपने इस स्वरूप द्वारा पूर्ण सृष्टि का भरण-पोषण करते हैं। इसी स्वरूप द्वारा परमात्मा ने अपने ओज व उष्णता की शक्ति से सभी ग्रहों को एकत्रित कर रखा है। परमात्मा का यह स्वरूप अत्यंत ही कल्याणकारी माना जाता है क्योंकि पूर्ण सृष्टि का आधार इसी स्वरूप पर टिका हुआ
मैं सूर्य (शिव ) तुम्हारा पिता और बुध, शुक्र, पृथ्वी व मंगल मेरी माया और तुम्हारी माताएँ हैं । क्या सूर्य व धरती ने किसी भी जीव-आत्मा में कभी भी कोई भेद किया ? प्रेम स्नेह ही मेरा धर्म है और यही तुमसे अपेक्षा करता हूँ ।
शिव स्वरूप शंकर
पृथ्वी पर बीते हुए इतिहास में सतयुग से कलयुग तक, एक ही मानव शरीर एैसा है जिसके ललाट पर ज्योति है। इसी स्वरूप द्वारा जीवन व्यतीत कर परमात्मा ने मानव को वेदों का ज्ञान प्रदान किया है जो मानव के लिए अत्यंत ही कल्याणकारी साबित हुआ है। वेदो शिवम शिवो वेदम।।परमात्मा शिव के इसी स्वरूप द्वारा मानव शरीर को रुद्र से शिव बनने का ज्ञान प्राप्त होता है।
शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है, तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है।
वे अर्धनारीश्वरहोते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी, वीतरागी हैं। सौम्य, आशुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं। शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं। उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखने को मिलता है। वे स्वयं द्वंद्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक है
हिन्दू धर्म में भगवान शिव को अनेक नामों से पुकारा जाता है
रूद्र – रूद्र से अभिप्राय जो दुखों का निर्माण व नाश करता है।पशुपतिनाथ – भगवान शिव को पशुपति इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह पशु पक्षियों व जीवआत्माओं के स्वामी हैंअर्धनारीश्वर – शिव और शक्ति के मिलन से अर्धनारीश्वर नाम प्रचलित हुआ।महादेव – महादेव का अर्थ है महान ईश्वरीय शक्ति।भोला – भोले का अर्थ है कोमल हृदय, दयालु व आसानी से माफ करने वाला। यह विश्वास किया जाता है कि भगवानशंकर आसानी से किसी पर भी प्रसन्न हो जाते हैं।लिंगम – पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक है।नटराज – नटराज को नृत्य का देवता मानते है क्योंकि भगवान शिव तांडव नृत्य के प्रेमी हैं।
शिव साधना !