नाथ सम्प्रदाय नामक योग परक आध्यात्मिक संस्था मानव समाज को उनकी एक देन है जो आज भी यह संगठन जन कल्याण औए आत्मोन्नति के योग मार्ग पर अग्रसर है ।
उन्होंने मानवता को यह सन्देश दिया कि योग से मनुष्य विचित्र शक्तियां अर्जित कर सकता हे ।उनका सन्देश है – योग में अपार शक्तियां है जो जगाने पर जाग जाती है ।यह उनका मध्य कालीन प्रयोग था जिसे उन्होंने मानव समाज को विरासत में दिया । 03.पातंजलि योग शास्त्र केवल चित्तवृत्ति निरोध और सामरस्य स्थापित करना ही योग कहा है ।आगे मौन है । गुरु गोरक्ष नाथ का हठयोग शैवयोग है ।इसमें परमात्मा शिव की प्रतिष्ठा है , जो परम तत्व है , परब्रह्म है ।इस परमतत्व परमात्मा शिव को योगी अपने काया मंदिर में खोज कर जीवात्मा को परमात्मा से एकाकार कर सकता है। दूसरी और भक्त और उपासक परमात्मा शिव की उपासना व भक्ति करके शरीर से बाहर भी परमात्मा के दर्शन प्राप्त कर जीवन मुक्त , मोक्षगामी हो सकता है , यह गुरु गोरक्षनाथ। की मानव समाज को अद्वतीय देन है ।
बौद्ध आत्मा को नहीँ मानते , जैन परमात्मा को नहीं मानते , नास्तिक किसी को भी नहीं मानते पर योग को सभी मानते हैं ।सभी भारतीय चिंतन धाराएं योग में विश्राम करती है ।पुराण वादी , शैव , वैष्णव , बौध्द , तांत्रिक , जैन आदि सब के अनुसार चरमो- न्नति योग में है ।अत: सभी चिंतन धाराएं योग पारक हुई ।गुरु गोरक्षनाथ ने सभी चिंतन धाराओं को इस बिंदु पर एकमत करने का सफल प्रयोग सिद्ध कर दिखाया। यह उनका अन्य चिंतन धाराओं के प्रति सहिष्णुता , समानता और एकता का सन्देश था ।यह गुरु गोरक्षनाथ की मानवता को मत्वपूर्ण देन है । 05.गुरु गोरखनाथ सिद्धियों को इतना महत्व नहीं देते थे ।वे मस्तिष्क के विकास को सर्वोपरि मानते थे ।वे इसे ब्रह्म मिलन का मार्ग मानते थे ।उन्होंने कहा – योग केवल शारीरिक व्यायाम नहीं है , योग मन , बुध्दि व् शरीर का विकास करने का साधना पथ है। विकसित मन बुद्धि व् शरीर आत्मा परमात्मा का मिलन बिंदु है ।विकसित मस्तिष्क का व्यक्ति सांसारिक कर्म क्षेत्रों में भी चरमोन्नति को प्राप्त कर सकताहै ।उन्होंने योग का द्वार प्रत्येक वयक्ति के लिए खोल दिया ।अन्य ऐसा कोई धर्म गुरु नहीं हुआ जिसने अपने धर्म के द्वार सभी लोगों के लिए बिना जाती , धर्म, वर्ण आदि भेद भाव के खोल दिया हो ।यह उनकी मानवता को बहुत बड़ी देन है ।
गुरु गोरख नाथ ने कहा – मानव जीवन में तीन प्रकार के दुःख पाये जाते हैं।भौतिक दुःख जैसे – गरीब अमीर होना अर्थार्त आर्थिक दुःख। दुसरा दैहिक दुःख जैसे- शारीरिक अपंगता , बिमारी आदि का दुःख तीसरा अहंकार जननी दुःख -ईर्ष्या , लिप्सा , जीत-हार ,गुटबंधी आदि ।आज भोंतिक दुःख , दैहिक दुखों का तो निवारण खोज निकाला है पर तीसरा अहंकार् जन्य दुःख व मानसिकता का दुःख चरम पर है । ह्त्या , डकैती , आतंक , बलातकार जैसे जघन्य अपराध बढ़ते जा रहे हैं।गुरु गोरक्षनाथ का मानव समाज को यह सन्देश था कि इस दुःख का उपचार केवल योग है और यह बात पूर्ण सत्य भी है । यह उनकी मानवता को सर्वोत्तम दें है । 07.गुरु गोरखनाथ जी ने मध्यकाल में योग के बल से प्रकृति पर विजय पाने का सफल प्रयोग किया था ।उन्होंने कहा योग विशुद्ध रूप से मस्तिष्क का विकास है और यह मनुष्य की बहुत बड़ी शक्ति को सामने लाने में सक्षम है । मस्तिष्क के विकास से ही आज वैज्ञानिकों ने कई ऐसी खोजें की है जिसे प्रकृति पर कुछ क्षेत्रों में विजय मिली है तथा भविष्य में और मिलने वाली है ।गुरु गोरक्षनाथ का यह कथन भविष्य के बुद्धिजीवियों और वैज्ञानिकों के लिए एक मध्यकालीन सन्देश था ।योगी अपने योग बल से आकास में उड़ सकता है तो वैज्ञानिक वायुयान से उड़ सकता है । दोनों ही कार्य विकशित मस्तिष्क का काम है । योग वैयक्तिक और आंतरिक विज्ञान है तो वैज्ञानिक पद्धति भौतिक और बाह्य विज्ञान है ।यह मानव भविष्य की पूर्व उद्घघोषणा उनकी ही देंन है ।। 08.मध्य काल में नरबलि , पशुबलि , जादू टोना ,तांत्रिक साधनाओं आदि पर सर्व प्रथम गुरु गोरखनाथ ने रोक लगाई जिससे तत्कालीन प्रजा भय मुक्त हुई। उन्होंने वाममार्ग को रोक कर स्त्री की मर्यादा को पुनर्स्थापित किया और समाज से व्यभिचार को मिटाया। यह उनकी बहुत बड़ी देन है । 09.गुरु गोरक्ष नाथ जी ने जाती प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई ।उन्होंने मनुष्य मात्र को जाती से एक समान माना । उन्होंने असंख्य देवी – देवताओं की पूजा पद्धति हठाकर एकेश्वरवाद की स्थापना की । उन्होंने तत्कालीन सामाजिक रूप को ही बदल डाला । यह गुरु गोरख नाथ जी की बहु बड़ी देन थी।
गुरु गोरखनाथ ने एवम् उनके सम्प्रदाय के अनुयायों -योगियो ने हाथ में त्रिशूल उठा कर यवनों के आक्रमणों से प्रजा की रक्षा की ।उनके ही शक्ति सामर्थ्य से भारतीय धर्म , संस्कृति, साहित्य , सभ्यता और समाज को उन यवनो के बर्बर आक्रमणों से बचा लिया ।यह उनकी समाज को बहुत बड़ी दें थी।
शिव लिंग की प्रतिमा में एक नवीन परिवर्तन गुरु गोरक्षनाथ जी ने किया था ।अति प्राचीन काल में शिलिंग प्रतिमाओं में योनि अथवा कुंडलीनी का चिन्ह नहीं होता था ।सर्व प्रथम उन्होंने शिव लिंग को योनि के दायरे में स्थापित करने की प्रथा का प्रचलन करवाया । गुरु गोरखनाथ मानते थे की शरीर के अंदर भी शिव लिंग है ।योनि भी अंदर है और कुंडलीनी ही शक्ति के रूप में काया मंदिर में रहती है ।शिव शक्ति के काया में मिलने पर शिवत्व प्राप्त होता है यही योग का लक्ष्य है । आगे चल कर यह प्रथा आधात्मिक रूप से सर्वत्र मान्य होगई ।यह उनकी देन हैंl साभार संकलन