अनसूया प्रजापति कर्दम और देवहूति की नौ कन्याओं में से एक तथा अत्रि मुनि की पत्नी थीं। उनकी पति-भक्ति अर्थात सतीत्व का तेज इतना अधिक था के उसके कारण आकाशमार्ग से जाते देवों को उसके प्रताप का अनुभव होता था। इसी कारण उन्हें ‘सती अनसूया’ भी कहा जाता है।
अनसूया ने राम, सीता और लक्ष्मण का अपने आश्रम में स्वागत किया था। उन्होंने सीता को उपदेश दिया था और उन्हें अखंड सौंदर्य की एक ओषधि भी दी थी। सतियों में उनकी गणना सबसे पहले होती है। कालिदास के ‘शाकुंतलम्’ में अनसूया नाम की शकुंतला की एक सखी भी कही गई है।
आज हम माता अनुसूयाजी के बारे में जानने की कोशिश करेंगे, अत्रि ऋषि की पत्नी और सती अनुसूयाजी की पौराणिक कथा से अधिकांश पाठक परिचित हैं, सती अनुसूइयाजी की पति भक्ति से त्रिदेव (ब्रह्माजी, विष्णुजी और शिवजी) को भी नन्हे बालक बनना पड़ा, आज उन्हीं माता अनुसूयाजी ने त्रिदेव को नन्हे शिशु बनने की पवित्र कथा को संक्षेप में समझने की कोशिश करेंगे।
एक बार नारदजी आकाश मार्ग से विचरण कर रहे थे तभी तीनों देवियां माँ लक्ष्मीजी, माँ सविताजी और माँ पार्वतीजी को परस्पर विचार विमर्श करते देखा, तीनों देवियाँ अपने सतीत्व और पवित्रता की चर्चा कर रही थी, नारदजी उनके पास पहुँचे और उन्हें अत्रि महामुनि की पत्नी अनुसूयाजी के असाधारण पातिव्रत्य के बारे में बताया।
नारदजी तीनों देवियों से बोले कि अनुसूयाजी के समान पवित्र और पतिव्रता नारी तीनों लोकों में नहीं है, तीनों देवियों को मन में अनुसूयाजी के प्रति ईर्ष्या होने लगी, तीनों देवियों ने सती अनसूयाजी के पातिव्रत्य को खंडित के लियें अपने पतियों से कहा, तीनों देवों ने उन्हें बहुत समझाया पर पर वे राजी नहीं हुयीं।
तीनों देवियों के विशेष आग्रह पर ब्रह्माजी, विष्णुजी और भगवान् भोलेनाथ ने सती अनसूयाजी के सतित्व और ब्रह्मशक्ति परखने का निश्चय किया, जब अत्रि ऋषि आश्रम से कहीं बाहर गयें हुये थे तब ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ने यतियों का भेष धारण किया और अत्रि ऋषि के आश्रम में पहुँचे तथा भिक्षा माँगने लगे।
अतिथि-सत्कार की परंपरा के चलते सती अनुसूयाजी ने त्रिमूर्तियों का उचित रूप से स्वागत कर उन्हें भोजन के लिये निमंत्रित किया, लेकिन यतियों के भेष में त्रिमूर्तियों ने एक स्वर में कहा, हे साध्वी! हमारा एक नियम है कि जब तुम निर्वस्त्र होकर भोजन परोसोगी, तभी हम भोजन करेंगे।
अनसूयाजी असमंजस में पड़ गई कि इससे तो उनके पातिव्रत्य के खंडित होने का संकट है, उन्होंने मन ही मन ऋषि अत्रि का स्मरण किया, दिव्य शक्ति से उन्होंने जाना कि यह तो त्रिदेव ब्रह्माजी, विष्णुजी तथा शंकरजी हैं, तब मुस्कुराते हुयें माता अनुसूयाजी बोली- जैसी आपकी इच्छा, तीनों यतियों पर जल छिड़क कर उन्हें तीन प्यारे शिशुओं के रूप में बदल दिया।
सुंदर शिशुओं को देख कर माता अनुसूया के हृदय में मातृत्व भाव उमड़ पड़ा, शिशुओं को स्तनपान कराया, दूध-भात खिलाया, गोद में सुलाया और तीनों गहरी नींद में सो गयें, माता अनसूयाजी ने तीनों शिशुओं को झूले में सुलाकर कहा- तीनों लोकों पर शासन करने वाले त्रिमूर्ति मेरे शिशु बन गये, मेरे भाग्य को क्या कहा जायें, फिर सती अनुसूइयाजी मधुर कंठ से लोरी गाने लगी।
उसी समय कहीं से एक सफेद बैल आश्रम में पहुंचा, एक विशाल गरुड़ पंख फड़फड़ाते हुए आश्रम पर उड़ने लगा और एक राजहंस कमल को चोंच में लिए हुयें आया और आकर माँ अनुसूयाजी के द्वार पर उतर गया, यह नजारा देखकर नारदजी सहित लक्ष्मीजी, सविताजी और पार्वती आ पहुंचे, जो अपने पतियों को ढूंढ रही थी।
नारदजी ने विनयपूर्वक अनसूयाजी से कहा- माते! अपने पतियों से संबंधित प्राणियों को आपके द्वार पर देखकर यह तीनों देवियां यहां पर आ गयीं हैं, जो अपने पतियों को ढूंढ रही थी, इन तीनों देवियों के पतियों को कृपया इन्हें सौंप दीजियें, अनसूया ने तीनों देवियों को प्रणाम करके कहा, देवियों, झूलों में सोने वाले शिशु अगर आपके पति हैं तो इन्हें आप ले जा सकती हैं।
लेकिन जब तीनों देवियों ने तीनों शिशुओं को देखा तो एक समान लगने वाले तीनों शिशु गहरी निद्रा में सो रहे थे, इस पर लक्ष्मीजी, सविताजी और पार्वती भ्रमित होने लगीं, नारदजी ने उनकी स्थिति जानकर उनसे पूछा- आप क्या अपने पति को पहचान नहीं सकतीं? जल्दी से अपने-अपने पति को गोद में उठा लीजियें।
देवियों ने जल्दी में एक-एक शिशु को उठाने की कोशिश की, लेकिन तीनों शिशु एक समान होने के कारण वे तीनों देवियाँ असमंजस में पड़ गयीं, तीनों देवियां शर्मिंदा होकर दूर जा खड़ी हो गयीं, तीनों देवियों ने माता अनुसूया से क्षमा याचना की और यह सच भी बताया कि उन्होंने ही परीक्षा लेने के लिए अपने पतियों को बाध्य किया था, फिर प्रार्थना की कि उनके पति को पुन: अपने स्वरूप में ले आयें।
माता अनसूयाजी ने अभिमंत्रित जल से त्रिदेवों को उनका रूप प्रदान किया, तीनों देव सती अनसूयाजी से प्रसन्न हो बोले- देवी! कोई वरदान माँगो, त्रिदेवों की बात सुन अनसूया बोली- प्रभु! आप देना चाहते हैं तो आप तीनों देव मेरी कोख से जन्म लें ये वरदान मुझे दे दिजिये, तभी से अत्रि ऋषि की पत्नी सती अनसूयाजी के नाम से प्रख्यात हुयीं।
कालान्तर में भगवान दतात्रेयजी रूप में भगवान विष्णुजी का, चन्द्रमाजी के रूप में ब्रह्माजी का तथा दुर्वासाजी के रूप में भगवान् शिवजी का जन्म माता अनुसूया के गर्भ से हुआ