दोस्तों आपने कई ऋषि मुनियों की कहानियाँ सुनी होगी लेकिन आज मैं आपको एक ऐसे विद्वान ऋषि की कहानी बताऊंगा जिसका लोहा हर किसी ने माना। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ महा विद्वान् ऋषि अष्टावक्र की जिन्होंने अल्प अवस्था में ही एक दम्भी आचार्य का अभिमान चूर-चूर कर दिया था।
-हीन अवस्था में दो भिक्षुक, जिसमें एक अष्टावक्र (शारीरिक रूप विकलांग थे उन्हें लाठी का सहारा लेकर चलना पड़ता था) एवं उनके एक साथी आश्रम के द्वार पर पहुंचतें है और द्वारपाल से पूछ्तें हैं:-
द्वारपाल हम आचार्य बंदी को ढूंढ रहें है? मैं उन्हें शास्त्रार्थ के लिए चुनौती देने आया हूँ ।
(संयोग से उस दिन राजा जनक भी अपने दरबारियों के साथ उस आश्रम में आये हुए थे)
द्वारपाल:– ब्राम्हण पुत्रों तुम अभी बालक हो, आचार्य बंदी को चुनौती देने के बदले किसी आश्रम में जा कर शिक्षा ग्रहण करो !
दो भिक्षुक:- आग की एक छोटी सी चिंगारी भी पूरे जंगल को जला कर ख़ाक कर सकती है! बाल पकने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता, न ही घनायु और कुलीन होने से कोई बड़ा, ज्ञान की साधना करने वाला ही वृद्ध और महत होता है, हम ज्ञान वृद्ध है, इसलिए हमें भीतर जाने दो और महाराज जनक और आचार्य बंदी को हमारे आगमन की सूचना दो!
अन्दर से महाराज जनक ने ये सुनकर द्वारपाल को कहा:- अश्वसेन उन्हें अन्दर आने दो।
लाठी का सहारा लेते हुए अष्टावक्र व् उनके साथी अन्दर आतें है और जैसे ही अध्ययनरत विद्यार्थियों के बीच पहुंचतें है तो सभी उनके विकलांग शरीर को देख कर हंसने लगतें हैं।
यह देख कर अष्टावक्र भी जोर-जोर से हंसने लगतें है, अष्टावक्र की हँसी देख कर सब चुप हो जातें है।
यह सब दृश्य देख कर महाराजा जनक अष्टावक्र से पूछ्तें है:- ब्राम्हण देवता आप सभा को देख कर इस तरह क्यों हँस रहे हैं?
अष्टावक्र :- (झुक कर जनक को प्रणाम करते हुए) महाराज मै तो यह सोच कर यहाँ आया था कि जनक की सभा में आकर इन विद्वानों के बीच मैं आचार्य बंदी को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दूंगा, लेकिन यहाँ आकर यह लगा कि यह तो मूर्खों की सभा है, मैंने अपने हंसने का कारण तो बता दिया अब आप अपने मूर्ख विद्वानों से पूछें कि वे किस पर हंसें?
मुझ पर या उस कुम्हार (भगवान) पर जिसने मुझे बनाया?
राजा जनक:- (खड़े हो कर हाथ जोड़ते हुए) ब्राम्हण कुमार मुझे और इन सभी को इस अज्ञान के लिए क्षमा करें, पर मेरा निवदन है कि अभी आप आचार्य बंदी से शास्त्रार्थ करने के लिए वयस्क नहीं हुए हैं, आचार्य बंदी से शास्त्रार्थ करना कठिन है उनसे पराजित होने वाले को जल समाधि लेनी पड़ती है इसलिए आप और विद्याध्ययन करें।
अष्टावक्र :- राजन! आचार्य बंदी से शास्त्रार्थ करने के लिए मुझ पर गुरु कृपा ही पर्याप्त है और जो अमर है उसे मृत्यु का क्या भय? किसी महान उद्देश्य के लिए प्राण देना मृत्यु नहीं होती आप आचार्य बंदी के सामने मुझे प्रस्तुत करें।
आचार्य बंदी :- (खड़े हो कर) मै हूँ आचार्य बंदी! (अभिमान के साथ) मै तुमसे शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार हूँ पर क्या तुम्हे मेरी शर्त स्वीकार है ?
अष्टावक्र का साथी:- एक ही बात बार-बार कह कर आप हमें भयभीत करने की नाकाम कोशिश क्यों कर रहें है?
आचार्य बंदी :- (हंसते हुए) चाहो तो तुम दोनों एक साथ मेरे साथ शास्त्रार्थ कर सकते हो!
अष्टावक्र :- मै एक हूँ और मै एक ही आपसे शास्त्रार्थ करूँगा।
दोनों शास्त्रार्थ के लिए बैठतें है ( शंखनाद होता है)
आचार्य बंदी :- प्रपंच क्या है?
अष्टावक्र :- जो कुछ दिखाई देता है जो कुछ भी, वो प्रपंच है।
अष्टावक्र :- जो दिखाई देता है का क्या तात्पर्य है ?
आचार्य बंदी :- जो दृष्टीगोचर है, मन और इन्द्रियों का विषय है जिसे मै स्वयं जानता हूँ वही दृश्य है।
आचार्य बंदी :- जो दृष्टा है उसे कौन जानता है? स्वयं को कौन देखता है?
अष्टावक्र :- उस स्वयं उस आत्म को देखने के लिए किसी के सहायता की ज़रुरत नहीं पड़ती जैसे सूर्य को प्रकाश के लिए दिये की ज़रूरत नहीं पड़ती, वह स्वयं प्रकाशमान है।
अष्टावक्र :- यह संसार कहाँ से आया?
आचार्य बंदी :- यह सृष्टि केवल और केवल उससे आयी।
आचार्य बंदी :- उससे का क्या तात्पर्य है ?
अष्टावक्र :- वह ब्रम्ह है, वह ईश्वर है, वह ही अपनी माया से इस संसार को रचता है, वह ही रचनाकार पालक और इस जगत का संघारक है।
अष्टावक्र :- ब्रम्ह इस संसार कि रचना पालन और संघार कैसे करता है?
आचार्य बंदी :- जिस प्रकार मकड़ी अपने जाल कि रचना करती है, उसी में विचरण करती है, फिर उसी को निगल जाती है, उसी प्रकार ईश्वर संसार कि रचना पालन और संघार करतें है।
आचार्य बंदी :- जीव क्या है?
अष्टावक्र :- जीव आत्मा है वह निर्विकार स्वयं है परन्तु अविद्या के प्रभाव में आकर स्वयं को मन और शरीर समझ बैठता है इसीलिए वह इस संसार का अनुभव करता है।
अष्टावक्र :- अविद्या क्या है?
आचार्य बंदी :- अनआत्मा को आत्मा समझना , निर्विकार को विकार युक्त समझना, अधिसंसार को ही सच समझना अविद्या है।
आचार्य बंदी :- विद्या क्या है?
अष्टावक्र :- आत्म का ज्ञान विद्या है. “सा विद्या या विमुक्तये” वह जो हमें सारे दुखों पीडाओं बंधनों अज्ञान प्रतियोगिताओं भ्रमात्मक कल्पनाओं से मुक्ति दिलाये वह विद्या है जो हमें द्वैत के भाव से, हम दो है के विचार से, तुम और मैं के भेद से मुक्ति दिलाये वह विद्या है, विद्या दृष्टी देती है जिससे मनुष्य अपने ब्रम्ह रूप को पहचान सके।
( सभी विद्वान एक स्वर में बोलतें है – साधू साधू साधू ।।। )
अष्टावक्र :- ब्रम्ह को जानने की प्रक्रिया क्या है?
आचार्य बंदी :- ब्रम्ह को जानने के दो मार्ग हैं :- पहला मार्ग यह जानना ब्रम्ह क्या नही है! जो ब्रम्ह नही है उसका निषेध करना सब नाम, गुण, रूप, सदोष और परिवर्तनशील वस्तु का निषेध कर निर्विकार को जानना।
दूसरा मार्ग – सत्य जैसा है उसे वैसा ही पहचानना, वह अस्तित्त्व रूप है उसके बिना संसार का अस्तित्व ही नही है, वह ब्रम्ह ही था, वह ब्रम्ह ही है, इसलिए मै ब्रम्ह हूँ, तुम ब्रम्ह हो, हम सब ब्रम्ह ही हैं
इसलिए सारा संसार ब्रम्ह है।
( सभी विद्वान एक स्वर में बोलतें है – साधू साधू साधू ।।। )
अष्टावक्र :- ब्रम्ह को कैसे जाना जा सकता है?
आचार्य बंदी :- ब्रम्ह को सही सामाजिक व्यवहार अध्यात्मिक चिंतन, ध्यानपूर्वक सुनने, नित्य अनुभवों पर विचार करने, निष्कर्षों पर मनन करने तथा समाधि में जा कर जाना जा सकता है।
आचार्य बंदी :- ब्रम्ह ज्ञानी के लक्षण क्या हैं ?
अष्टावक्र :- यदि कोई दावा करता है कि उसने ब्रम्ह को जान लिया है तो वह ब्रह्म को नहीं जानता, ब्रम्ह को जानने के साथ ही ब्रम्ह को जानने का अहंकार मिट जाता है।
आचार्य बंदी :- क्या उसे तर्क से जाना जा सकता है?
अष्टावक्र :- नहीं पर तर्क सहायक हो सकता है।
अष्टावक्र :- क्या उसे प्रार्थना और भक्ति से जाना जा सकता है?
आचार्य बंदी :- नहीं परन्तु प्रार्थना और भक्ति सहायक हो सकती है।
आचार्य बंदी :- क्या उसे योग व मनन से जाना जा सकता है?
अष्टावक्र :- नहीं पर योग व मनन सहायक हो सकते है।
( शास्त्रार्थ का अंत होता दिखाई नहीं दे रहा था, दोनों एक दूसरे पर भारी पड़ रहे थे कि अचानक बंदी को ये नहीं सूझता कि वह अष्टावक्र के प्रश्न का क्या उत्तर दें, वे मौन हो गये)
अष्टावक्र :- आचार्य! उत्तर दें, आचार्य! उत्तर दें।
इस पर भी आचार्य बंदी के शांत रहने पर सभी अष्टावक्र की जय जय कार करने लगते हैं। उनके गले में फूलों की माला पहनाई जाती है।
महाराजा जनक भी उठ कर उनको माला पहनातें हैं और प्रणाम करतें है।
आचार्य बंदी :- मै अपनी पराजय स्वीकार करता हूं, मै जल समाधि लेने के लिए तैयार हूँ।
अष्टावक्र :- मै आपको जल समाधि देने नहीं आया हूँ आचार्य बंदी। याद होगा आप सबको कि आचार्य बंदी के अभिमान और इस प्रथा के कारण कितने निर्दोष विद्वानों की जान जा चुकी है । आचार्य बंदी याद करें आचार्य काहोड को मै उसी आचार्य कहोड का पुत्र हूँ, आज मै विजयी हूँ और आप पराजित। मै चाहूँ तो आपको जल समाधि दे सकता हूँ परतुं मै ऐसा नहीं करूँगा आचार्य बंदी। मेरा क्षमा ही प्रतिशोध है (रोते हुए) मै आपको क्षमा करता हूँ आचार्य बंदी।
आचार्य बंदी :- (रोते हुए) प्राण लेने से भी बड़ा दंड दिया है तुमने मुझे बाल ज्ञानी। मुझसे पाप हुआ है, पाप हुआ है मुझसे।
अष्टावक्र :- पश्चाताप की आग से बड़ी कोई आग नहीं आचार्य बंदी। हर दिन इस आग में जल पवित्र हो। यही आपका प्रायश्चित होगा, शास्त्र को शस्त्र न बनाओ।
महाराज ! शास्त्र जीवन का विकास करतें है। शस्त्र जीवन का विनाश। जितना पुराना है हिमालय जितनी पुरानी है गंगा उतना ही पुराना है ये सत्य- हिंसा से कभी किसी ने किसी को नहीं जीता।
सभी उठ कर उनको प्रणाम करतें है और अष्टावक्र प्रस्थान करतें है।
दोस्तों, पौराणिक काल की यह वास्तविक घटना हमें अभिमान से दूर रहने की सीख देती है साथ ही ये हमें सिखाती है कि भले किसी ने हमारे साथ बहुत बुरा व्यवहार किया हो पर हमारी सच्ची जीत उसे क्षमा करने में है दंड देने में नहीं।