प्राचीन काल में रुक्मांगद नामक एक प्रसिद्ध सार्वभौम नरेश थे। भगवान की आराधना ही उनका जीवन था। वे चराचार जगत में अपने आराध्य भगवान हषीकेश के दर्शन करते तथा भगवान विष्णु की सेवा की भावना से ही अपने राज्य का संचालन करते थे। वे सभी प्राणियों पर क्षमा भाव रखते थे।
राजा रुक्मांगद ने अपने जीवन में अपनी समस्त प्रजा एवं परिवार सहित एकादशी-व्रत के अनुष्ठान का नियम धारण कर रखा था। एकादशी के दिन राज्य की ओर से घोषणा होती थी कि आज एकादशी के दिन आठ वर्ष से अधिक और पचासी वर्ष से कम आयुवाला जो भी मनुष्य अन्न खायेगा, वह राजा की ओर से दंडनीय होगा। एकादशी के दिन सभी लोग गंगास्नान एवं दान-पूण्य करते थे। राजा के धर्म की ध्वजा सर्वत्र फहराने लगी। धर्म के प्रभाव से प्रजा सर्वथा सुखी एवं समृद्ध थी।
राजा रुक्मांगद का गृहस्थ-जीवन पूर्णरूप से सुखमय था। वे पीताम्बरी भगवान विष्णु की आराधना करते हुए मनुष्य लोक के उत्तम भोग भोग रहे थे। उनकी पतिव्रता पत्नी संध्यावली साक्षात् भगवती लक्ष्मी का दूसरा रूप थी। वह सभी दृष्टि से पति का सुख-सम्पादन करने में अदितीय थी। पति का सुख ही रानी संध्यावली का जीवन था। पति की सेवा वह अपने हाथों से करती थी।
उनका पुत्र धर्मांगद गुणों में अपने पिता के अनुरूप ही था। उसकी भी बुद्धि भगवान विष्णु के चरणों में लग गयी थी। वह अपने माता-पिता का आज्ञाकारी था। उसमे संचालन की पूर्ण योग्यता थी वह भी प्रजा पालक एवं प्रजा की रक्षा में सदा तत्पर रहता था। राजा रुक्मांगद ने अपने पुत्र धर्मांगद के गुणों से प्रसन्न होकर राज्य-संचालन का भार उसके कंधो पर देना आरम्भ कर दिया।
भगवान श्री हरी की आराधना एवं एकादशी-व्रत के प्रभाव से राज्य में समस्त प्रजा सुखी थी। मृत्यु के पश्चात सभी वैकुण्ठधाम में जाने लगे। नरक के द्वार तक कोई जाता ही नहीं था। सम्पूर्ण नरक सुना हो गया। सूर्यपुत्र यमराज एवं चित्रगुप्त – दोनों के लिए कोई कार्य रहा ही नहीं। जब सभी प्रजानन वैकुंठ जाने लगे, तब यमराज किन्हें दण्ड दे और चित्रगुप्त किनके कर्मो का हिसाब रखे। अंत में वे ब्रह्मा जी की सभा में पहुंचे। उन्होंने ब्रह्मा जी से रुक्मांगद के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहा-“पितामह ! भगवान विष्णु की आराधना एवं एकादशी व्रत के प्रभाव से समस्त प्राणी वैकुंठ धाम को प्राप्त हो रहे है। नरक में कोई प्राणी नहीं आ रहा है। लम्बे समय से हम लोग व्यर्थ बैठे है।”
यह सुनकर ब्रह्मा जी को अत्यंत प्रसन्नता हुई। वे मन ही मन भक्तराज रुक्मांगद को नमन करने लगे। ब्रह्मा जी रुक्मांगद की ऐसी अदभुद महिमा को और बढ़ाना चाहते थे। उन्होंने अपने मन में संकल्प से एक अत्यंत सुंदर एवं लावण्यवती नारी को प्रकट किया। उस नारी का नाम मोहिनी था। वह संसार की समस्त सुंदरियों में श्रेष्ठ एवं रूप के वैभव से सम्पन्न थी।
एक दिन राजा रुक्मांगद वन-भ्रमण के लिए निकले। उसी वन में वह मोहिनी अत्यंत मधुर वीणा बजा रही थी। उस रूपराशि को देखकर राजा रुक्मांगद उस पर मोहित हो गए। राजा ने मोहिनी से विवाह की याचना की। मोहिनी मुस्कुराते हुए एक शर्त रखकर बोली-“महाराज ! समय पर मैं जो कहूं आपको उसका पालन करना पड़ेगा।”
राजा ने मोह के वशीभूत होकर वह शर्त स्वीकार कर ली और वे मोहिनी के साथ अपनी राजधानी लौट आए। वहां वे मोहिनी के साथ सुख से समय व्यतीत करने लगे।
युवराज धर्मांगद ने शासन की पूर्ण योग्यता प्राप्त कर ली थी। उसने भूमण्डल के सभी मण्डलों को जीतकर उन पर अपना शासन जमा लिया तथा अनेक बहुमूल्य रत्न-मणियां लाकर अपने पिता को अर्पित किये। धर्मांगद के सुराज्य से प्रसन्न होकर रुक्मांगद ने अपनी सम्पूर्ण शासन-व्यवस्था उसे सौंप दी और एक योग्य कन्या से धर्मांगद का विधिपूर्वक विवाह कर दिया।
ब्रह्मा जी ने मोहिनी को राजा रुक्मांगद की परीक्षा के लिए ही भेजा था। सुखपूर्वक बहुत समय व्यतीत होने पर एक दिन वह अवसर आया जब रुक्मांगद का एकादशी-व्रत निर्विघ्न चल रहा था। वे एकादशी के दिन कभी अन्न ग्रहण नहीं करते थे। सदैव की भांति वे घोषणा करा देते-मनुष्यों ! तुम सब अपने वैभव के अनुसार एकादशी के दिन चक्र-सुदर्शनधारी भगवान विष्णु की पूजा करो। जो भगवान विष्णु का लोक प्रदान करने वाले मेरे इस धर्मसम्मत वचन का पालन नहीं करेगा, निश्चय ही उसे कठोर दंड दिया जायगा।
एक दिन मोहिनी अपने पति रुक्मांगद से एकादशी के दिन अन्न खाने के लिए आग्रह करने लगी। उसने हठपूर्वक कहा कि गृहस्थ राजा को जो सदैव परिश्रम करता है, कभी भी अन्न नहीं छोड़ना चाहिए। राजा ने मोहिनी को बहुत समझाया। उन्होंने शास्त्रो का प्रमाण देकर बताया कि एकादशी के दिन जो अन्न खाता है, वह पाप का भागी और नरकगामी होता है, किन्तु मोहिनी अपने हठ पर अटल रही। मोहिनी ने राजा को विवाह के समय दी हुई अपनी शर्त की स्मृति कराई कि जो मैं कहूंगी उनका आपको पालन करना होगा अन्यथा असत्यवादी हो जाएंगे एवं सत्य का त्याग करने से आपको पाप का भागी होना पड़ेगा। मोहिनी ने अंत में यह भी घोषणा की कि आप एकादशी के दिन अन्न ग्रहण नहीं करेंगे तो मैं आपको त्यागकर चली जाऊंगी।
राजा रुक्मांगद ने उसे बहुत समझाया परन्तु मोहिनी अपने निश्चय पर अटल रही। वह अपने पति को असत्यवादी घोषित करती हुई उन्हें छोड़कर जाने को तत्पर थी। इधर राजा रुक्मांगद मोहिनी पर आसक्त होते हुए भी एकादशी के दिन अन्न ग्रहण न करने के निश्चय पर दृढ़ थे।
पितृभक्त धर्मांगद एवं पतिव्रता रानी संध्यावली ने मोहिनी को राजा को छोड़कर न जाने के लिए बहुत समझाया। रानी संध्यावली ने अत्यंत मधुर वाणी में मोहिनी से कहा-“जो नारी सदा अपने पति की आज्ञा का पालन करती है, उसे सावित्री के समान अक्षय तथा निर्मल लोक प्राप्त होते है। देवि ! तुम अपना यह आग्रह छोड़ दो। महाराज ने कभी बचपन में भी एकादशी के दिन अन्न ग्रहण नहीं किया है। अतः तुम इसके लिए उन्हें बाध्य मत करो। तुम उनसे कोई अन्य वर मांग लो।”
रानी संध्यावली की बात सुनकर दुष्ट ह्रदया मोहिनी ने अपनी एक नई शर्त रखी-“राजा रुक्मांगद अपने हाथों से अपने पुत्र धर्मांगद का सर काटकर भेट करे अथवा एकादशी के दिन अन्न ग्रहण करे तभी सत्य की रक्षा हो सकती है।”
राजा रुक्मांगद मोहिनी की नई शर्त सुनकर अर्धमूर्च्छित-से होने लगे। मुर्ख मोहिनी को अपनी भावी दुर्दशा का किंचिन्न मात्र भी विचार नहीं था। वह अपने पति के बहुत समझाने एवं अनुनय-विनय करने पर भी कुछ ध्यान न देकर अपने हठ पर अड़ी रही। अंत में धर्मांगद एवं रानी संध्यावली ने महाराज रुक्मांगद से प्रार्थना करके उन्हें सत्य की रक्षा के लिए राजी किया।
कृपालु भगवान विष्णु, राजा रुक्मांगद धर्मांगद एवं रानी संध्यावली का धैर्य देख रहे थे। चमचमाती तलवार ज्यों ही धर्मांगद के सिर को छूने वाली थी, त्यों ही भगवान विष्णु ने प्रकट होकर राजा का हाथ पकड़ लिया। इस अदभुद दृश्य को देवगण भी देख रहे थे। उनके देखते ही देखते महात्मा नरेश अपनी रानी संध्यावली एवं पुत्र धर्मांगद के साथ भगवान विष्णु में सशरीर विलीन हो गए।
क्रूर-ह्रदया मोहिनी भी यह दृश्य देख रही थी। राजा के पुरोहित वसु से यह सब देखा नहीं गया। उनके संकल्प से दुष्टा मोहिनी वहीं भस्म होकर राख की ढेर हो गई।