महर्षि भृगु के पुत्र थे महर्षि ऋचीक, और महर्षि ऋचीक के पुत्र हुए महर्षि “जमदग्नि” तथा महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका के घर “परशुराम” सहित 5 पुत्रों का जन्म हुआ था। महर्षि भृगु ने उनका नाम “राम” रखा, वे जमदग्नि का पुत्र होने के कारण “जामदग्न्य” और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण “परशुराम” कहलाये। महर्षि भृगु के वरदान स्वरूप परशुराम जी मे जन्म से ही क्षत्रियों वाले गुण थे। वे भगवान श्री हरि विष्णु के ‘छठवें’ अवतार थे। भगवान परशुरामजी को भगवान विष्णु का “आवेशावतार” भी माना जाता है, इसीलिए भी बाल्यकाल से ही वे तनिक क्रोधी स्वभाव के थे।
एक बार महिष्मति राज्य के राजा हैहय वंशीय कार्तवीर्य अर्जुन अपनी सेना सहित मार्ग भटक कर जमदग्नि जी के आश्रम पहुँचे। कार्तवीर्य अर्जुन को एक हज़ार भुजाओं का वरदान मिला था इसीलिए उसे “सहस्त्रार्जुन” भी कहते थे। ऋषि जमदग्नि ने चमत्कारी ‘कामधेनु’ गाय की सहायता से सहस्त्रार्जुन की उसकी सेना सहित आवभगत की।
कामधेनु का चमत्कार देख सहस्त्रार्जुन के मन मे लोभ उत्पन्न हुआ और वो कामधेनु को चोरी करके ले गया। परशुरामजी को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने महिष्मति राज्य पर अकेले ही आक्रमण कर दिया। सहस्त्रार्जुन की हज़ार भुजाओं को अपने फरसे से काट काट कर उसका वध कर दिया और कामधेनु को वापिस आश्रम ले आए।
सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने पिता के वध का बदला लेने के लिए परशुरामजी की अनुपस्थिति में जमदग्नि मुनि को उस वक्त मार दिया जब वे ध्यान में बैठे हुए थे। परशुरामजी की माता रेणुका अपने पति की चिताग्नि में प्रविष्ट होकर उनके साथ ही सती हो गई। इस घटना के बाद परशुरामजी के अंदर का क्रोध जाग उठा। उन्होंने विचार किया कि जब ये दुष्ट और निरंकुश हो चुके क्षत्रिय राजा मेरे पिता के साथ इस तरह का व्यवहार कर सकते है तो आम जनता पर कितना अत्याचार करते होंगे। और उन्होंने सत्ता के मद में डूबे निरंकुश एवं आताताई राजाओं के कष्टों से प्रजा को मुक्त करने का संकल्प लिया।
इसके बाद उन्होंने 21 बार इस धरती को हैहयवंशी दुष्ट और निरंकुश एवं अत्याचारी क्षत्रिय राजाओं का वध कर पृथ्वी के बोझ को हल्का किया। उन्होंने केवल अपने पिता का बदला लेने के लिए शस्त्र धारण नही किए थे, अपितु सम्पूर्ण मानव जाति को अत्याचारी राजाओं के अत्याचारों से बचाने के लिए और प्रजा को सुख देने के उद्देश्य से शस्त्र धारण किए थे।
और ये बात भी मिथ्या ही है कि उन्होंने 21 बार सभी क्षत्रियों का सम्पूर्ण विनाश कर दिया था, अगर ऐसा होता तो पहली बार क्षत्रियों का संहार करने के बाद दुबारा क्षत्रिय कैसे उत्पन्न हो गए। उन्होंने केवल उन्ही क्षत्रिय राजाओं का संहार किया जो अपने राजधर्म से विमुख हो गए थे, सत्ता के मद में चूर होकर आम जनता पर बेहिसाब अत्याचार करते थे।
बाद में महर्षि ऋचीक ने उन्हें समझाया और शस्त्र त्याग देने की विनती की। इसके बाद भगवान परशुरामजी ने अश्वमेध यज्ञ किया और सम्पूर्ण पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। इंद्र के सामने उन्होंने शस्त्र त्याग दिए और स्वयं महेन्द्रगिरि पर्वत पर तपस्या करने चले गए।
ब्रह्मवैवर्त_पुराण में कथानक मिलता है कि कैलाश स्थित भगवान शिव के अन्त:पुर में प्रवेश करते समय गणेश जी द्वारा रोके जाने पर परशुरामजी ने बलपूर्वक अन्दर जाने की चेष्ठा की। तब गणेशजी और परशुरामजी के मध्य भयंकर युद्ध हुआ, युध्य में परशुरामजी द्वारा किए गए फरसे के प्रहार से गणेश जी का एक दाँत टूट गया, जिससे वे “एकदन्त” कहलाये।
त्रेतायुग में रामावतार के समय राजा जनक की सभा में सीता स्वयंवर के वक्त शिवजी का धनुष भंग होने की ध्वनि सुनकर भगवान परशुरामजी ने आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुँच कर पहले तो श्रीरामजी पर अत्यंत क्रोध किया, तदुपरान्त परब्रह्म से परिचय होने और अपनी शक्ति का संशय मिटते ही अपना वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा याचना कर तपस्या करने के लिए महेन्द्रगिरि पर्वत को लौट गए।
द्वापरयुग में भीष्म पितामह, गुरु द्रोण, अंगराज कर्ण जैसे शूरवीर योद्धा उनके शिष्य थे। एक बार देवी अम्बा को न्याय दिलाने के लिए उन्होंने भीष्म पितामह से युद्ध भी किया था। कर्ण ने झूठ बोलकर उनसे शिक्षा ग्रहण की थी इसीलिए भगवान परशुराम ने उन्हें श्राप दिया था कि युद्धभूमि में जिस वक्त कर्ण को मेरी दी हुई शिक्षा की अत्यधिक आवश्यकता होगी उसी वक्त वह अपनी सारी शिक्षा भूल जाएगा।
भगवान परशुरामजी #अष्टचिरंजीवियो में से एक है और वो इस कल्प के अंत तक इस पृथ्वी पर रहेंगे। कल्कि पुराण के अनुसार जब भगवान विष्णु कलयुग में “कल्कि अवतार” में प्रकट होंगे तब भगवान परशुरामजी ही उनके गुरु होंगे, और उन्हें शस्त्र और शास्त्र का ज्ञान देंगे।
भगवान परशुराम का ध्येय धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना था। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये। जिस में कोंकण, गोवा और केरल का समावेश है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तिर चला कर गुजरात से लेकर केरल तक समुद्र को पिछे धकेलते हुए नई भूमि का निर्माण किया। और इसी कारण कोंकण, गोवा और केरल मे भगवान परशुराम वंदनीय है।