{{{ॐ}}} #अकाल_मृत्यु

जो मनुष्य पर्वत से कूदकर, आग से जलकर, गले मे फांसी लगाकर या पानी मे डुबकी मरते है ।
ऐसे आत्मघाती और पतित मनुष्यों के मरने का शौच नही लगता है । इसे एक सौ एक वीं मृत्यु अर्थात अकाल मृत्यु कहते है ।
अन्न,दही, शहद, और उड़द से पिंड कि पूर्ति करनी चाहिए । अगर एक वर्ष को भीतर अधिक मास हो जाये तो उसके लिए एक पिंड अधिक देना चाहिए ।
प्रेत पिंड तीन भाग करके उन्हें क्रमशः पिता, पितामह, और प्रपितामह, के पिंडों मे जोड दें।
उपनिषद एवं पुराणों आदि ये अनुसार मनुष्य की मृत्यु या देह मे निवास करना उसका समय निर्धारित होता है।
कहने का उद्देश्य यह है योनि मानव का कर्म क्षेत्र है और वह उसे भोगने को विषय मे ईश्वराधीन है।
इसे भोगने के क्रम में मानव नया कर्म कर सकता है– यही योनि का फल है।
मृत्यु कि समय पूर्व निश्चित हैa क्योकि मानव जीवन से बंधा है ।
तब क्या अकाल मृत्यु की एक सुनियोजित व्यवस्था है । नही? अगर अकाल मृत्यु की एक सुनियोजित व्यवस्था होती हो उसका नाम भी केवल मृत्यु होता ,अकाल, जुड़ने का मतलब ही अचानक है।
मृत्यु के केवल चार कारण है। इनमे तीन स्वाभाविक है चौथा कारण अकाल है ।
बौद्ध शास्त्रों के अनुसार मृत्यु इसलिए होती है कि आयु का क्षय हो गया है ।
मनुष्य के पूर्व संचित कर्म और वासनायें बीज रूप में सदैव विधमान रहती है ।
इसलिए मानव देह प्राप्त होती है असंभव है कोई नरक से सीधे स्वर्ग मे चला जाये अथवा स्वर्ग से नरक मे चला जाये।
यह सत्य है भविष्य को किसी ने देखा नही पर हमें जीवन मे सुख , सुविधा, सफलता मिल रही है उसके पीछे कोई ना कोई कारण अवश्य रहा होगा।
यह अन्तर क्या है ।यह रहस्य जो सामान्य दृष्टि से समझ नही आ सकता।
इसी रहस्य को जानने के लिए हमारे ऋषि मुनियों ने एक क्या अनेकों जन्म स्वाहा कर दिये।
क्या हम इन रहस्यों को इतनी सरलता से समझ सकते है कदापि नही
जिन लोगों की मृत्यु कष्ट कर होती है sउनके विषय मे यह अनुमान लगाया जाता है ।
कि ऐसे बिन्दु से उनकी यात्रा का प्रारंभ हो रहा है जो उनकी अकाल मृत्यु है । अशुभ है ।
प्राचीन काल मे मानव की आयु सौ साल मानी जाती थी लेकिन असत् आचरण एवं पाप के कारण हमारी आयु का लगातार ह्रास हो गया ।
व्यक्ति जैसा होता है वैसा ही उसका आचरण एवं साधना शैली होती है ।
मनुष्य के परलोक गमन की स्थितियों का अनुमान उसकी मृत्यु के समय किया जाता है ।
जैसे पुण्यात्मा का जन्म अच्छे महुर्त मे होता है, hउसी प्रकार सत्कर्मियों सी मृत्यु भी मोक्षप्रद ग्रहों के रहने पर हुआ करती है।
स्वर्ग सुन्दर है, नरक वीभत्स है गर्मी दुःख का और तृप्ति सुख कि सुचक है नरक मे अलंकार है स्वर्ग मे प्रकाश है।
ऋग्वेद कहता है–,,द्वे सृती अश्रणवं पितृणामाहं देवानामुत मर्त्तानां ताभ्यामिदं विश्वमेजत् समेति यदंतरा पितरं मातरं च,,
अर्थात मनुष्यों को स्वर्गारोहण मार्ग सुने है — एक पितरों का,दुसरा देवों का। सारे मनुष्य इन दो मार्गों से ही जाते है ।
मृत्यु को पश्चात, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच प्राण, मन और बुद्धि ये सत्रह अंग मिलकर एक सुक्ष्म शरीर बनता है ।
इसमें मन की प्रमुखता रहती है बुद्धि सुप्त रहती है ।मन अनुभव करने मे सक्षम होता है ।

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