गंगा मैया की संपूर्ण कथा

हम जानेंगे गंगा मैया(माता) की कहानी और इतिहास के बारे में। गंगा माता कैसे आई, गंगा जी कहां जाएगी, गंगा जी को विष्णुपदी और भागीरथ क्यों कहते हैं, गंगा जी और सरस्वती का विवाद, गंगा जी के जल रूप हो जाने की कथा, गंगा जी और सगर के साठ हजार पुत्रों की कथा। तो आइए जानते हैं गंगा माता की कहानी:

गंगा जी कहां से और कैसे आई।

नारद जी ने पूछा कि श्रीहरि के चरण कमलों में प्रकट हुई गंगा किस प्रकार ब्रह्माजी के कमण्डल में रही , गंगा भगवान की प्रेयसी भी है । कहो , ये सब बातें कैसे घटी ? नारायणजी ने कहा नारद प्रचीन समय की बात है , जलमयी गंगा गो लोक में विराजमान थी । राधा और कृष्ण के अंगों से प्रकट हुई ये गंगा उनका अंश तथा साक्षात् उनका स्वरूप ही है । जलमयी गंगा को अधिष्ठात्री देवी अत्यन्त सुन्दर रूप धारण करके भूमण्डल पर पधारी । तब वह गंगा कुछ लज्जाभाव से भगवान श्रीकृष्ण के पास विराजमान हो गई । इतने में असंख्य गोपियों के साथ राधा भी आ गई । राधिका को आता देखकर कृष्ण उठकर खड़े हो गए और कुछ हँसकर आश्चर्य भाव से मधुर वचनों में बातचीत करने लगे । गंगा भी तुरन्त उठ गई और राधा का स्तवन किया ।

राधा ने कहा – प्राणेश ! आपके प्रसन्न मुख कमल को निहारने वाली ये कल्याणी कौन है ? इसके मन में मिलने की इच्छा है । आपके मनोहर रूप ने इसे अचेत कर दिया है । इसके सब अंग पुलकित हो रहे हैं । राधा ने साध्वी गंगा से भी कुछ कहना चाहा , गंगा योग में प्रवीण थी । गंगा को योग से राधा का मनोभाव भी ज्ञात हो गया । अत : बीच सभा में ही अन्तर्ध्यान होकर वे अपने जल में प्रविष्ट हो गई । तब सिद्ध योगिनी राधा ने योग से इस रहस्य को जानकर उस जल स्वरूपिणी गंगा को अंजलि से उठाकर पीना आरम्भ कर दिया । ऐसी स्थिति में राधा का अभिप्राय भी गंगा से छिपा न रह सका , अतः वह भगवान श्रीकृष्ण की शरण में जाकर लीन हो गई । तब राधा ने गंगा को गोलोक , बैकुण्ठ लोक तथा ब्रह्मलोक आदि सब जगहों पर ढूंढा , परन्तु वह कहीं न मिली । उस समय सर्वत्र जी का नितांत अभाव हो गया । फिर तो विष्णु , शंकर , धर्म , इन्द्र , सूर्य देवता और मुनिगण सभी गोलोक में आये । भगवान श्रीकृष्ण को उपस्थित सभी देवताओं ने प्रणाम करके उनका स्वागत किया ।

श्रीकृष्ण ने देवताओं का अभिप्राय समझकर उनसे कहा- आप सभी महानुभाव गंगा को ले जाने के लिए यहां पधारे हैं । परन्तु इस समय वह गंगा शरणार्थी बन कर मेरे चरण कमलों में छिपी है । मैं आप लोगों को उसे सहर्ष सौंप दूंगा , लेकिन आप पहले उसे निर्भय कर दें क्योंकि राधा उसे पी जाने के लिए उद्यत थी । फिर तो वे सब देवता भगवती राधा को प्रसन्न करने में लग गए । भक्ति के कारण अत्यन्त विनीत होकर ब्रह्माजी ने अपने चारों मुखों से राधा जी की स्तुति की । ब्रह्माजी जी की इस प्रकार की प्रार्थना पर राधाजी हंस पड़ी । उन्होंने गंगा की सभी बातों को स्वीकार कर लिया । तब गंगा श्रीकृष्ण के पैर के अंगूठे के नखाग्र से मिलकर विराजमान हो गई ।

ब्रह्मा जी ने गंगा के उस स्वरूप को कमण्डल में रखा लिया । भगवान शंकर ने उस गंगाजल को अपने मस्तक पर स्थान दिया तत्पश्चात ब्रह्माजी ने गंगा को राधा मंत्र की दीक्षा की । गंगा ने सभी उचित नियमों से राधा की पूजा करके बैकुण्ठ के लिए प्रस्थान किया ।

गंगा का विष्णु की पत्नी बनने की कथा

जब गंगा बैकुण्ठ को चली गई तब ब्रह्माजी भी बैकुण्ठ पहुंचे और जगत्प्रभु श्रीहरि को प्रणाम करके कहने लगे भगवन् ! श्रीराधा और श्रीकृष्ण के अंग से प्रकट हुई ब्रह्मद्रव- स्वरूपिणी गंगा इस समय एक देवी के रूप में सुशोभित है । प्रभो ! आप से मेरी प्रार्थना है कि आप सुरेश्वरी गंगा को अपनी पत्नी बना लीजिए । सभी पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं और स्त्रियां भी उसकी कला है । केवल आप भगवान विष्णु ही प्रकृति से परे निर्गुण ब्रह्म हैं । परिपूर्णतम श्रीकृष्ण स्वयं दो भागों में विभक्त हुए । आधे से तो दो भुजाध री श्रीकृष्ण बने रहे और उनका आधा अंग आप चतुर्भुज श्रीहरि के रूप में प्रकट हो गया । इसी प्रकार श्रीकृष्ण के वामांग से उत्पन्न हुई राधा भी दो रूपों में परिणित हुई । दाहिने अंश से वे स्वयं रही और बायें अंश से लक्ष्मी का प्रकट्य हुआ । अतः ये गंगा आपको ही वरण करना चाहती है क्योंकि आपके महाभाग ब्रह्मा ने गंगा को भगवान श्रीविष्णु के पास बैठा दिया । फिर स्वयं श्रीहरि ने विवाह के नियमानुसार गंगा को ग्रहण कर लिया और वे उसके प्रियतम पति बन गए ।

गंगा का विष्णुपदी नाम कैसे पड़ा।
जो गंगा पृथ्वी पर पधार चुकी की थी वह भी समय अनुसार अपने उस स्थान पर पुनः आ गई। भगवान के चरण कमलों से प्रकट होने के कारण गंगा जी विष्णुपदी नाम से प्रसिद्ध हुई। तब से गंगा मां को विष्णुपदी नाम से जाना जाने लगा।

गंगा और सरस्वती का विवाद।
श्रीनारायण जी बोले – विष्णु जी के सान्निध्य में रहने वाली यही गंगा और सरस्वती अभिशप्त होकर भारत में नदी रूप में बहती है । इन नदियों का सेवन करने वाले इस जन्म में गुणी और विद्वान बनते हैं तथा मरणोपरान्त बैकुण्ठ प्राप्त करते हैं । प्रतिदिन गंगा में स्नान करने वाला गर्भवास के संकट से भी मुक्त हो जाता है । श्रीनारायण के इस कथन को सुनकर नारद जी ने अपनी उत्सुकता न रोक पाते हुए पूछा- दोनों दिव्य देवियों गंगा और सरस्वती का विवाद किस कारण से हुआ यह आप मुझे सुनाने की कृपा करें ।

नारायण जी ने कहा- देवर्षि ! विष्णु भगवान की तीन पत्नियां लक्ष्मी , गंगा और सरस्वती है । एक बार विष्णु जी ने गंगा से प्रीतिवश विशेष अनुराग और लगाव दिखाया तो सरस्वती ने मन में ईर्ष्या भाव उत्पन्न हो गया । सरस्वती ने तीनों पत्नियों के प्रति सम्मान अनुरक्ति न रखने के आर्योचित सिद्धान्त की उपेक्षा करने पर और गंगा के प्रति पक्षपात व आसक्ति दिखाने के लिए अपने पति विष्णु जी को खरी – खोटी सुनाई । सरस्वती गंगा को भी आड़े हाथों लेकर उसे दुर्वचन कहने लगी । विष्णु जी पत्नियों के इस कलह को देखकर प्रासाद से बाहर चले गये ।

अब तो सरस्वती का क्रोध और भी भड़क उठा , वह गंगा के केश पकड़ने और उसे मारने को लपकी । लक्ष्मी ने बीच में आकर दोनों को शांत करने का प्रयास किया । इस पर सरस्वती ने लक्ष्मी को भी गंगा की सहायिका मानते हुए उनका अपमान किया और उसे बीच में आने के कारण उसे वृक्ष हो जाने का शाप दे दिया । इधर गंगा अपने कारण निरपराधी लक्ष्मी को दण्डित होते हए देखकर अत्यधिक क्षुब्ध हो उठी और उसने सरस्वती को भूतल पर नदी हो जाने का शाप दिया । सरस्वती भी पीछे नहीं रही , उसने भी गंगा को मृतकों की अस्थिया ढोने वाली नदी बताकर पृथ्वी पर बहने का शाप दिया ।

जब विष्णु जी अपने पार्षदों सहित लोटे तो उन्हें अपनी पत्नियों के परस्परं कलह और शाप आदि का पूरा पता लगा । विष्णु जी ने लक्ष्मी की शान्त वृत्ति , सहनशीलता और उदारता को देखकर केवल उसे ही पत्नीरूप में अपने पास रखना उचित समझा । विष्णु जी ने गंगा और सरस्वती को त्याग देने का निश्चय कर लिया । वियोग की आवश्यम्भावा स्थिति से व्यथित होकर दोनों ही कातर स्वरों में शापों से शीघ्र निपटने का उपाय पूछने लगी । विष्णु ने उन्हें बताया कि गंगा तो नदी रूप में स्वर्ग , भूलोक और पाताल लोक में त्रिपथा होकर बहेगी और उसका स्थान शिव जटाओं में भी होगा । अंशरूप में ही वह स्वर्ग में मेरी सन्निधि में रहेगी । सरस्वती प्रधान रूप पृथ्वी तल पर रहेगी और अंशरूप में मेरे पास । लक्ष्मी ‘ तुलसी ‘ वृक्ष बनकर मेरे शालिग्राम पत्नीत्व ग्रहण करेगी । स्वरूप से विवाह करके समग्र और स्थाई रूप से मेरा पत्नीत्व ग्रहण करेगी।

दोनों देवियां शापानुसार नदी रूप से पृथ्वी पर आयी । गंगा के नदी रूप में पृथ्वी पर आने की कथाओं के सम्बन्ध में आप पढ़ चुके हैं । पृथ्वी पर स्रोतों में जो सर ( जल ) दिखाई देता है उस सर का स्वामी सरस्वान कहलाता है और सरस्वान् की पत्नी होने से ही सरस्वती , सरस्वती कहलायी । सरस्वती नदी तीर्थरूपा है , वह भी पापियों के पाप नाश के लिए जलती अग्नि के समान है । हे वत्स ! यही गंगा और सरस्वती शाप से भूलोक में नदी बनकर बहती है । राधा – कृष्ण के शरीरों से उत्पन्न उनके स्वरूपों को दर्शन कराने वाली गंगा अत्यन्त पवित्र , सर्व सिद्धिदाता तथा तीर्थरूपा नदी है ।

गंगा और राजा सगर की कथा

गंगाजी की उत्पत्ति के विस्तृत प्रसंग में नारद जी ने पूछा – भगवान , विष्णु स्वरूपा एवं विष्णुपदी नाम से विख्यात गंगा भारतवर्ष में किस प्रकार और किस युग में पधारी ? पापों का नाश करने वाला यह पवित्र प्रसंग मैं सुनना चाहता हूँ। भगवान –

नारायण कहते हैं- नारद ! राजा सगर नामक एक सूर्यवंशी सम्राट हो चुके हैं । उनकी दो नारियां थी । बेदमी और शैव्या । शैव्या से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम असमन्जस था । दूसरी रानी बेदमी ने भी पुत्र की कामना से भगवान शंकर की उपासना की । शंकर के वरदान से उसे भी गर्भ हो गया । पूरे सौ वर्ष बीत जाने पर उसके गर्भ से एक मांसपिण्ड की उत्पत्ति हुई । उसे देखकर वह बहुत दु : खी हुई और उसने भगवान शिव का ध्यान किया । तब शिवजी ब्राह्मण के वेश में उसके पास पध रे और उस मांसपिण्ड को साठ हजार भागों में बांट दिया । वे सभी टुकड़े पुत्र रूप में बदल गए ।

तब एक बार राजा सगर ने सौ अश्वमेघ यज्ञ करने का संकल्प किया । तब वे निन्यानवे यज्ञ कर चुके तथा सौवाँ यज्ञ करने के लिए उन्होंने अपना श्याम वर्ण घोड़ा छोड़ा तो इन्द्र ने यह समझकर कि राजा सगर के सौ अश्वमेघ यज्ञ पूरे हो जाने पर इन्द्रासन न छिन जाए , उनके घोड़े को कपिल मुनि के आश्रम में ले जाकर बांध दिया , तात्पर्य ये था कि राजा सगर का कुल बहुत बड़ा होने से वह किसी ऋषि शाप से ही नष्ट हो सकता था । कपिल मुनि सबसे श्रेष्ठ माने जाते थे और उनके तेज को सहने की सामर्थ्य किसी राजा में न थी । राजा सगर के साठ हजार तेजस्वी पुत्र घोड़े को खोजते कपिल मुनि के आश्रम तक पहुंच गये । अश्व को वहाँ देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वह मुनि को प्रणाम किये बिना उस अश्व को पकड़ने दौड़े । अपना ऐसा अनादर देखकर कपिल मुनि क्रोध में आ गए ।

उस क्रोध भरी दृष्टि निक्षेप से ही वह क्षणभर में वहीं पर भस्म हो गए । ये समाचार सुनकर राजा सगर की आंखें निरन्तर जल बहाने लगी । वे दुःखी होकर घोर जंगल में चले गये । तब उनके पुत्र असमंजस ने अपने भाईयों के उद्धार के लिए एक लम्बे समय तक तपस्या की लेकिन अन्त में वह भी काल के कलेवा बन गए । तदुपरान्त असमंजस का पुत्र अंशुमान ( राजा सगर का पौत्र ) कपिल मुनि की बहुत सेवा करके उस अश्व को वापिस लाया ।

जिससे राजा का यज्ञ पूर्ण हुआ । यज्ञ तो पूर्ण हो गया लेकिन साठ हजार कुमार भस्म हो गए थे । वे किसी प्रकार मुक्त न हो सके । अंशुमान ने उन राजपुत्रों की मुक्ति का उपाय भी कपिल मुनि से पूछा । तब उन्होंने कहा कि जब गंगाजी पृथ्वी पर आयेंगी तभी उनका उद्धार होगा । अंशुमान ने गंगाजी को पृथ्वी पर लाने का भरसक प्रयास किया , किन्तु असफल रहा । कालान्तर में अंशुमान का पुत्र दिलीप राज्य का अधिकारी बना । उसने भी पिता की आज्ञा मानकर गंगा को लाने के लिए बहुत तप किया परन्तु वह भी सफल न हो सका । राजा दिलीप के पुत्र श्रद्धा रखने वाले भगीरथ भगवान के परम भक्त , विद्वान , श्रीहरि में अटूट गुणवान पुरुष थे ।

गंगा को ले आने का निश्चय करके उन्होंने बहुत समय तक तपस्या की तब शंकर भगवान के साक्षात् दर्शन उन्हें हुए । उनकी दिव्य झाँकी पाकर भगीरथ ने उन्हें बार – बार प्रणाम किया और स्तुति की । उन्हें भगवान से अभीष्ट वर भी मिल गया । वे चाहते थे कि मेरे पूर्वज तर जायें । भगवान ने गंगा से कहा- हे सुरेश्वरी ! तुम अभी भारतवर्ष में जाओ और मेरी आज्ञानुसार सगर के सभी पुत्रों को पवित्र करो । तब श्री गंगा जी ने पृथ्वी पर आना स्वीकार कर लिया ।

जिस समय गंगा पृथ्वी पर आने को हुई तो उस समय उनके वेग को संभालने के लिए शिवजी ने उन्हें अपने मस्तक पर धारण किया और वे गंगाधर के नाम से विख्यात फिर जब जटाओं में से उन्होंने एक बूंद छोड़ी तो गंगा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ गंगा भूतल पर उतर कर राजा भगीरथ के पीछे – पीछे चली । वेग के कारण मार्ग में ऋषि का आश्रम बह चला । मुनि कुपित हो गए और सारी नदी का आचमन कर गए । तब फिर भागीरथ की आराधना से जब मुनि प्रसन्न हुए तो गंगा को अपनी जंघा से प्रकट किया । तब गंगा भगीरथी से जाह्नवी कहलाई । फिर राजा भगीरथ गंगा की स्तुति करके उन्हें अपने साथ ले वहां पहुंचे , जहां सगर के साठ हजार पुत्र जलकर भस्म हो गए थे ।

परम पवित्र गंगा जल का स्पर्श पाकर वे राजकुमार बैकुण्ठ को चले गए । भगीरथ अपने पूर्वजों को तारकर कृत – कृत्य हो गए । चूंकि राजा भगीरथ गंगा को पृथ्वी पर लाए। इसलिए गंगा( गंगा जी) को भागीरथी भी कहा जाता है ।

गंगा( गंगा जी) जल स्वरूप में कैसे आई

गगा – जलरूप में कैसे आई ? नारदजी ने पूछा भगवन् ! भूमण्डल को पवित्र करने वाली त्रिप्रयाग गंगा कहां से प्रकट हुई अर्थात् इसका जन्म और आविर्भाव कैसे हुआ । नारायण जी बोले एक समय की बात है कार्तिक मास की पूर्णिमा थी । भगवान श्रीकृष्ण रासमंडल में थे । इतने में ब्रह्मा की प्रेरणा से प्रेरित होकर उल्लास को बढ़ाने वाले , पछताने लगे । जिसके प्रत्येक शब्द में उल्लास बढ़ाने की शक्ति भरी थी । उसे सुनकर सभी गोप , गोपी और देवता मुग्ध होकर मूर्च्छित हो गए । जब किसी प्रकार से उन्हें चेत हआ तो उन्होंने देखा कि समस्त रासमंडल का पूरा स्थल जल से भरा हुआ है । श्रीकृष्ण और राधा का कहीं पता नहीं है फिर तो गोप, गोपी, देवता और ब्राह्मण सभी अत्यंत उच्च स्वर से विलाप करने लगे।

ठीक उसी समय बड़े मधुर शब्दों में आकाशवाणी हुई- “ मैं सर्वात्मा कृष्ण और मेरी स्वरूपा शक्ति राध । हम दोनों ने ही भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए यह जलमय विग्रह धारण कर लिया है । तुम्हे मेरे तथा इन राधा के शरीर से क्या प्रयोजन ? इस प्रकार पूर्ण ब्रह्म भगवान कृष्ण ही जलरूप होकर गंगा बन गए थे । गोलोक में प्रकट होने वाली गंगा के रूप में राधा – कृष्ण प्रकट हुए हैं । राधा और कृष्ण के अंग से प्रकट हुई गंगा भक्ति व मुक्ति दोनों देने वाली है । इन आदरणीय गंगा देवी को सम्पूर्ण विश्व के लोग पूजते हैं ।

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