महर्षि मुद्गल की परीक्षा :——-

कुरुक्षेत्र में मुद्गल नामक एक धर्मात्मा, जितेंद्रिय और सत्यनिष्ठ ऋषि थे। ईर्ष्या और क्रोध का उनमें नाम भी नहीं था। जब किसान खेतों से अन्न काट लेते और गिरा हुआ अन्न भी चुन लेते, तब उन खेतों में जो दाने बचे रहते उन्हें मुद्गलजी एकत्र कर लेते। कबूतर के समान वह थोड़ा ही अन्न एकत्र करते थे और उसी से अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। आए हुए अतिथि का उसी अन्न से वह सत्कार भी करते थे। पूर्णिमा और अमावस्या के श्राद्ध तथा इष्टीकृत हवन भी वह संपन्न करते थे। महात्मा मुद्गल एक पक्ष में एक द्रोण भर अन्न एकत्र कर लाते थे। उतने से देवता, पितर और अतिथि आदि की पूजा-सेवा करने के बाद जो कुछ बचता था उससे अपना तथा परिवार का काम चलाते थे।

महर्षि मुद्गल के दान की महिमा सुनकर मुनि दुर्वासा ने उनकी परीक्षा करने का निश्चय किया। वह कठोर वचन कहते महर्षि मुद्गल के आश्रम में पहुंच कर भोजन मांगने लगे। महर्षि मुद्गल ने बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ दुर्वासा जी का स्वागत किया। अर्घ्य, पाद्य आदि देकर उनकी पूजा की और फिर उन्हें भोजन कराया। दुर्वासाजी ने महर्षि मुद्गल के पास जितना अन्न था, वह सब खा लिया तथा बचा हुआ जूठा अन्न अपने शरीर में पोत लिया। फिर वह वहां से चले गए। महर्षि मुद्गल के पास अन्न नहीं रहा। पूरे एक पक्ष में उन्होंने फिर द्रोण भर अन्न एकत्र किया। देवता तथा पितरों का भाग देकर वह जैसे ही निवृत्त हुए, मुनि दुर्वासा पहले के समान फिर आ गए और फिर सब अन्न खाकर चल दिए। महर्षि मुद्गल फिर परिवार सहित भूखे रह गए।

एक-दो बार नहीं, पूरे छ: पक्ष तक इसी प्रकार दुर्वासा जी आते रहे। प्रत्येक बार उन्होंने महर्षि मुद्गल का सारा अन्न खा लिया। महर्षि मुद्गल भी उन्हें भोजन कराकर फिर अन्न के दाने चुनने में लग जाते थे। उनके मन में क्रोध, घबराहट आदि का स्पर्श भी नहीं हुआ। मुनि दुर्वासा के प्रति भी उनका पहले के ही समान आदर-भाव बना रहा।
मुनि दुर्वासा अंत में प्रसन्न होकर बोले, ‘‘महर्षि! संसार में तुम्हारे समान ईर्ष्या-रहित अतिथि की सेवा करने वाला कोई नहीं है। क्षुधा इतनी बुरी होती है कि वह मनुष्य के धर्म-ज्ञान तथा धैर्य को नष्ट कर देती है किंतु तुम पर वह अपना प्रभाव नहीं दिखा सकी। इंद्रिय निग्रह, धैर्य, दान, सत्य, शम, दम, दया आदि धर्म तुममें पूर्ण प्रतिष्ठित हैं। विप्रश्रेष्ठ! तुम अपने इसी शरीर से स्वर्ग जाओ। ’’ मुनि दुर्वासा के इतना कहते ही देवदूत स्वर्ग से विमान लेकर वहां आए और उन्होंने महर्षि मुद्गल से उसमें बैठने की प्रार्थना की।

महर्षि मुद्गल ने देवदूतों से स्वर्ग के गुण तथा दोष पूछे और उनकी बातें सुनकर बोले, ‘‘जहां परस्पर स्पर्धा है, जहां पूर्ण तृप्ति नहीं और जहां असुरों के आक्रमण तथा पुण्य क्षीण होने से पतन का भय सदा लगा ही रहता है उस स्वर्ग में मैं नहीं जाना चाहता।’’ देवदूतों को विमान लेकर लौट जाना पड़ा। महर्षि मुद्गल ने कुछ ही दिनों में अपने त्यागमय जीवन तथा भगवद-भजन के प्रभाव से भगवद-धाम प्राप्त किया।

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