राजा पृथु :———–

ध्रुव जी के वन गमन के पश्चात आगे चलकर उनके वंश में अंग नामक राजा हुये। राजा अंग बड़े भगवद भक्त थे, उनके वन चले जाने के बाद उनके पुत्र वेन को राजा बनाया गया।

वेन अत्यंत दुष्ट प्रकृति का था। उसने दान, धर्म, हवन, सब बंद करा दिये। महात्माओं ने समझाया तो उनसे भी झगड गया। तब महात्माओं ने हुंकार भरी और वेन भस्म हो गया।

वेन के कोई संतान नहीं थी अतः उसकी भुजाओं का मंथन किया गया। तब उनसे एक दिव्य जोड़ा प्रकट हुआ- जो पुरुष थे वो ‘महाराज पृथु’ थे और जो देवी थीं वो ‘महारानी अर्चि’ थीं।

महाराज पृथु का राज्याभिषेक हुआ और उन्हें समस्त पृथ्वी का सम्राट बनाया गया। महाराज पृथु जब सिंहासन पर बैठे, उस समय पृथ्वी अन्नहीन थी और प्रजा भूख से मर रही थी।

प्रजा का करुण क्रन्दन सुनकर राजा पृथु अत्यधिक दुःखी हुये। जब उन्हें मालुम हुआ कि पृथ्वी माता ने अन्न,औषधि आदि को अपने उदर में छिपा लिया है तो वे क्रोधित होकर धनुष बाण लेकर पृथ्वी को मारने के लिए दौड़ पड़े। पृथ्वी काँप उठी और गौ का रूप बनाकर भागने लगी। पृथ्वी ने जब देखा कि मेरी रक्षा कोई नहीं कर सकता तो वह राजा पृथु की शरण में आयी।

गौरूपी पृथ्वी ने विनितभाव से कहा- राजन! पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने जिन धान्य आदि को उत्पन्न किया था, उन्हें दुराचारी लोगों ने नष्ट कर दिया था और राजा लोगों ने मेरा पालन और आदर करना छोड़ दिया था इसलिए ओषधियों को मैंने अपने में छिपा लिया। यदि आपको अन्न की आवश्यकता है तो मुझे समतल कीजिये, जिससे इंद्र का बरसाया जल वर्षा-ऋतु के बाद भी मेरे उपर सर्वत्र बना रहे और मेरे लिए योग्य बछड़ा, दोहनपात्र और दुहनेवाले की व्यवस्था कीजिये तब मैं औषधि और अन्न पर्याप्त मात्रा में दूँगी।

राजा पृथु ने पृथ्वी के प्रति पुत्री के समान स्नेह रखकर इन सबकी पूर्ति की। धनुष की नोंक से पर्वतों को फोड़कर इस सारे भूमण्डल को समतल कर दिया फिर इस समतल भूमि में प्रजा के लिए यथायोग्य निवास स्थानों का विभाग। अनेक गाँव कस्बे, नगर, पशुओं के रहने के स्थान, सैनिक छावनियाँ किसानों के गाँव आदि बसाये।

राजा पृथु पहले ऐसे राजा थे, जिन्होंने पृथ्वी को व्यवस्थित किया। इसी कारण महाराज पृथु को ही इस पृथ्वी का पहला राजा माना गया। एक राजा का कर्तव्य पूरा करने के बाद पृथु को भगवान के दर्शन की इच्छा हुई और उन्होंने 100 अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प लिया।

इधर इंद्र को चिंता हो गई यदि पृथु 100 अश्वमेध यज्ञ पूरा कर लेंगे तो मेरा इन्द्रासन छिन जायेगा। इंद्र यज्ञ का घोड़ा चुराकर भाग गया। बार-बार पृथु यज्ञ करें और इंद्र घोड़ा चुराकर भाग जाये।

जब पृथु परेशान हो गये तो ब्रह्माजी ने राजा पृथु से कहा- आपको लगता है, 100 यज्ञ पूरे होने से भगवान के दर्शन होंगे, अगर होते तो इंद्र को भी भगवद दर्शन हो जाते। वो तो 100 यज्ञ करके ही इंद्र बना है। बल्कि वो तो 100 यज्ञ करने के बाद भी चोरी कर रहा है।

ब्रह्मा जी ने आगे कहा- देखो राजन! भगवान प्रेम से मिलते हैं। 100 यज्ञ करो या 1000 यज्ञ करो जब तक प्रेम नहीं होगा भगवान नहीं मिलेंगे।

महाराज पृथु को बात समझ में आयी। उन्होंने अंतिम यज्ञ का संकल्प बीच में ही छोड़ दिया।

एक महापुरुष (ब्रह्मा जी) की आज्ञा पालन करने का फल ये हुआ कि जैसे ही पृथु ने संकल्प छोड़ा, थोड़ी देर में ही राजा पृथु ने देखा कि शंख, चक्र, गदा और पुष्प लिये हुए भगवान नारायण इंद्र के साथ यज्ञशाला में प्रकट हो जाते हैं।

इसलिये कहा जाता है- भगवान साधना से नहीं कृपा से मिलते हैं।

भगवान प्रकट हो गये। राजा पृथु ने भगवान का पूजन किया। पूजन के बाद भगवान ने कहा- राजन! तुम्हारे गुणों से और तुम्हारे शील से मैं प्रसन्न हूँ। मेरी इच्छा है तुम कुछ वरदान माँग लो।

राजा पृथु ने सोचा- माँगना ही अच्छा है। माँगूगा तब तक दर्शन तो होते रहेंगे अन्यथा भगवान चले जायेंगे।

पृथु कहते हैं- भगवन! एक वरदान इस लोक के लिए दीजिए और एक वरदान बैकुण्ठ के लिये दे दीजिए। इस लोक के लिए तो 10,000 कान दे दीजिये।

भगवान ने कहा- 10,000 कान क्यों चाहते हो?

राजा पृथु ने कहा- भगवन! दो कानों से आपकी कथा सुनता हूँ तो तृप्ति नहीं होती। 10,000 कान होंगे तो सब कानों से आपकी कथा सुनूँगा और खूब आनंद का अनुभव करूँगा।

भगवान ने प्रसन्न होते हुये कहा- मैं तुम्हें इन्हीं कानों में 10,000 कान की ताकत दे देता हूँ और बैकुण्ठ के लिये क्या चाहियें?

पृथु जी बोलते हैं- जब मैं बैकुण्ठ में रहूँगा, तो रोज मुझे आपके चरणों की सेवा मिल जाये।

भगवान ने कहा- तुम्हारे जैसे प्रेमी को मैं चरण सेवा के लिये क्यों मना करूँगा?

पृथु जी ने कहा- आप मना नहीं करेंगे, लेकिन वहाँ आपकी चरण सेविका लक्ष्मी जी रहती हैं। जब दो सेवक हो जायेंगे तो निश्चित रूप से झगड़ा भी होगा। जब चरण सेवा को लेकर झगड़ा हो तो अभी से वरदान दे दो कि आप लक्ष्मी जी का पक्ष नहीं लेंगे मेरा पक्ष लेंगे।

भगवान की आँखों में आँसू आ गये। भगवान वरदान देकर अपने धाम को चले गये।

इसके बाद राजा पृथु ने अपनी प्रजा को धर्म का उपदेश देते हुए कहा- प्रजा जो धर्म करती है उसका छठवाँ हिस्सा राजा को मिलता है। इसलिए मेरी भलाई को ध्यान में रखते हुए तुम लोग अच्छे कर्म करना।

एक दिन की बात है महाराज पृथु के बगीचे में सनकादि ऋषि लोग प्रकट हो गए। राजा पृथु ने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार से अपने उद्धार का उपाय पूछा। उन्होंने कहा- आप तो भगवद दर्शन कर चुके हैं फिर भी आप पूछना चाहते हैं तो हम कहते हैं यदि चार बातें जीवन में हो तो मनुष्य का कल्याण होता है-

1.सर्वहित का भाव 2.धार्मिक जीवन 3.भगवान के प्रति प्रेम व श्रद्धा 4. सदगुरु कृपा।

इसके बाद राजा पृथु ने अपने पुत्र को राजा बना दिया और खुद जंगल में चले गये। एक दिन भजन करते-करते उनका पंचभौतिक शरीर शान्त हो गया। महारानी अर्चि उनके शरीर के साथ सती हो गयीं। इस प्रकार दोनों भगवान के धाम को चले गये।

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