सनातन धर्म को मानने वाले माता वैष्णो देवी की महिमा गाते नहीं थकते हैं. हमारे धर्मशास्त्रों में कलयुग में लोगों के कष्ट हरने के लिए देवी-देवताओं के नामजप के साथ-साथ कथाएं भी बेहद उपयोगी बताई गई हैं. स्थान और काल में भेद की वजह से कथाओं में भी कुछ अंतर पाए जाते हैं.
बस मन में सच्ची श्रद्धा होनी चाहिए, प्रभु कृपा अवश्य करते हैं. वैसे तो माता वैष्णो देवी से जुड़ी कई कथाएं हैं, पर जो कथा सबसे अधिक प्रचलित है, वह आगे दी जा रही है…
वैष्णो देवी ने अपने एक परम भक्त पंडित श्रीधर की भक्ति से प्रसन्न होकर उसकी लाज बचाई. माता ने पूरे जगत को अपनी महिमा का बोध कराया. तब से आज तक लोग इस तीर्थस्थल की यात्रा करते हैं और माता की कृपा पाते हैं.
कटरा से कुछ दूरी पर स्थित हंसाली गांव में मां वैष्णवी के परम भक्त श्रीधर रहते थे. वे नि:संतान होने से दु:खी रहते थे. एक दिन उन्होंने नवरात्रि पूजन के लिए कुंवारी कन्याओं को बुलवाया. मां वैष्णो कन्या वेश में उन्हीं के बीच आ बैठीं. पूजन के बाद सभी कन्याएं तो चली गईं, पर मां वैष्णो देवी वहीं रहीं और श्रीधर से बोलीं, ‘सबको अपने घर भंडारे का निमंत्रण दे आओ.’ श्रीधर ने उस दिव्य कन्या की बात मान ली और आस-पास के गांवों में भंडारे का संदेश पहुंचा दिया. वहां से लौटकर आते समय गुरु गोरखनाथ व उनके शिष्य बाबा भैरवनाथ जी के साथ उनके दूसरे शिष्यों को भी भोजन का निमंत्रण दिया.
भोजन का निमंत्रण पाकर सभी गांववासी अचंभित थे कि वह कौन सी कन्या है, जो इतने सारे लोगों को भोजन करवाना चाहती है? इसके बाद श्रीधर के घर में अनेक गांववासी आकर भोजन के लिए जमा हुए. तब कन्या रूपी मां वैष्णो देवी ने एक विचित्र पात्र से सभी को भोजन परोसना शुरू किया. भोजन परोसते हुए जब वह कन्या भैरवनाथ के पास गई, तब उसने कहा कि मैं तो खीर- पूड़ी की जगह मांस खाऊंगा और मदिरापान करूंगा.
तब कन्या रूपी मां ने उसे समझाया कि यह ब्राह्मण के यहां का भोजन है, इसमें मांसाहार नहीं किया जाता. किंतु भैरवनाथ ने जान-बूझकर अपनी बात पर अड़ा रहा. जब भैरवनाथ ने उस कन्या को पकड़ना चाहा, तब मां ने उसके कपट को जान लिया. मां वायु रूप में बदलकर त्रिकूटा पर्वत की ओर उड़ चलीं. भैरवनाथ भी उनके पीछे गया.
माना जाता है कि मां की रक्षा के लिए पवनपुत्र हनुमान भी थे. हनुमानजी को प्यास लगने पर माता ने उनके आग्रह पर धनुष से पहाड़ पर बाण चलाकर एक जलधारा निकाली और उस जल में अपने केश धोए. आज यह पवित्र जलधारा बाणगंगा के नाम से जानी जाती है. इसके पवित्र जल को पीने या इसमें स्नान करने से श्रद्धालुओं की सारी थकावट और तकलीफें दूर हो जाती हैं.
इस दौरान माता ने एक गुफा में प्रवेश कर नौ माह तक तपस्या की. भैरवनाथ भी उनके पीछे वहां तक आ गया. तब एक साधु ने भैरवनाथ से कहा कि तू जिसे एक कन्या समझ रहा है, वह आदिशक्ति जगदम्बा है, इसलिए उस महाशक्ति का पीछा छोड़ दे. भैरवनाथ ने साधु की बात नहीं मानी. तब माता गुफा की दूसरी ओर से मार्ग बनाकर बाहर निकल गईं. यह गुफा आज भी अर्द्धकुमारी या आदिकुमारी या गर्भजून के नाम से प्रसिद्ध है.
अर्द्धकुमारी के पहले माता की चरण पादुका भी है. यह वह स्थान है, जहां माता ने भागते-भागते मुड़कर भैरवनाथ को देखा था. गुफा से बाहर निकल कर कन्या ने देवी का रूप धारण किया. माता ने भैरवनाथ को चेताया और वापस जाने को कहा. फिर भी वह नहीं माना. माता गुफा के भीतर चली गईं. तब माता की रक्षा के लिए हनुमानजी गुफा के बाहर थे और उन्होंने भैरवनाथ से युद्ध किया. भैरव ने फिर भी हार नहीं मानी. जब वीर लंगूर निढाल होने लगा, तब माता वैष्णवी ने महाकाली का रूप लेकर भैरवनाथ का संहार कर दिया. भैरवनाथ का सिर कटकर भवन से 8 किमी दूर त्रिकूट पर्वत की भैरव घाटी में गिरा. उस स्थान को भैंरोनाथ के मंदिर के नाम से जाना जाता है.
जिस स्थान पर मां वैष्णो देवी ने हठी भैरवनाथ का वध किया, वह स्थान पवित्र गुफा अथवा भवन के नाम से प्रसिद्ध है. इसी स्थान पर मां महाकाली (दाएं), मां महासरस्वती (मध्य) और मां महालक्ष्मी (बाएं) पिंडी के रूप में गुफा में विराजमान हैं. इन तीनों के सम्मिलत रूप को ही मां वैष्णो देवी का रूप कहा जाता है.
कहा जाता है कि अपने वध के बाद भैरवनाथ को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ और उसने मां से क्षमादान की भीख मांगी. माता वैष्णो देवी जानती थीं कि उन पर हमला करने के पीछे भैरव की प्रमुख मंशा मोक्ष प्राप्त करने की थी. उन्होंने न केवल भैरव को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान की, बल्कि उसे वरदान देते हुए कहा कि मेरे दर्शन तब तक पूरे नहीं माने जाएंगे, जब तक कोई भक्त, मेरे बाद तुम्हारे दर्शन नहीं करेगा. उसी मान्यता के अनुसार आज भी भक्त माता वैष्णो देवी के दर्शन करने के बाद करीब पौने तीन किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई करके भैरवनाथ के दर्शन करने जाते हैं.
इस बीच वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं. इस बीच पंडित श्रीधर अधीर हो गए. वे त्रिकुटा पर्वत की ओर उसी रास्ते आगे बढ़े, जो उन्होंने सपने में देखा था, अंततः वे गुफा के द्वार पर पहुंचे. उन्होंने कई विधियों से पिंडों की पूजा को अपनी दिनचर्या बना ली. देवी उनकी पूजा से प्रसन्न हुईं. वे उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया. तब से श्रीधर और उनके वंशज देवी मां वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं.
आज भी बारहों मास वैष्णो देवी के दरबार में भक्तों का तांता लगा रहता है. सच्चे मन से याद करने पर माता सबका बेड़ा पार लगाती हैं.