अज्ञान ही दुखो का कारण है
सृष्टि के विकास मे दो प्रकार सी शक्तियां प्रमुख है ।जिन्हे पुरूष , तथा प्रकृति कहा गया है । इनमे प्रकृति तत्त्व ही पुरूष के संयोग से क्रियाशील होता है । जिससे कर्मों का उदभव होता है ।
इस प्रकार कर्मों या कारण न अकेली प्रकृति है न पुरुष बल्कि दोनो के संयोग से ही इनकी उत्पत्ति होती है । प्रकृति नित्य परिवर्तन शील है । तथा पुरुष तत्व स्थिर है जिसमे परिवर्तन नही होता किन्तु प्रकृति की क्रियाशीलता का कारण वही है। इस सम्पूर्ण दृश्य जगत का निर्माण प्रकृति से ही होता है । इसका कोई भी स्वरूप शाश्वत नही है । जबकि वह पुरुष तत्त्व अकेला ही शाश्वत है।
अन्य कोई नही। इस प्रकृति के लुभावने स्वरूप केे कारण उस पुरुष का इससे तादात्म्य है । जिससे वह निज शाश्वत स्वरूप को विस्मृत कर प्रकृति को ही अपना स्वरूप मान बैठता है ।
इस असत् मे सत् की भ्रांति का हो जाना ही अध्यास है। जो अज्ञान का कारण होता है ।इसलिए अज्ञान ही सभी दुखो का मूल है । इसी अंज्ञान के कारण मनुष्य इस प्रकृति ये माया जाल मे बंध जाता है । जिसे ज्ञान के द्वारा ही हटाया जा सकता है ।
अन्यविधी काम नही आती प्रकृति के इस समस्त आवरण को हटने पर ही उसे आत्म रूपी सुर्य का दर्शन होता है जिससे प्रकृति को सत् मानने की भ्रांति टुटती है। इसी को ज्ञान अथवा आत्मज्ञान कहते है तथा आत्मज्ञान से ही मुक्ति होती है । शास्त्रों कि वचन है कि ज्ञान के बिना मुक्ति नही होती। इसलिए मुक्ति के लिए ज्ञान ही एक मात्र विधि है। बिना ज्ञानके जो भी कर्म किया जायेगा वह अपना फल अवश्य देगा तथा उस फल के भोग हेतु फिर मनुष्य जन्म धारण करना पड़ेगा। इस कर्म के वृत्त को तोडने को लिए ज्ञान के अतिरिक्त और कोई उपाय नही है ।ज्ञान को अभाव मे मनुष्य का सम्बन्ध प्रकृति से रहेगा जिससे वह कर्त्ता एवं भोक्ता बना ही रहेगा और इसी से उसकी मृत्यु एवं पुनर्जन्म भी होता रहेगा
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग का ही प्रकृति और पुरूष के नाम सेपुनः वर्णन करते है शरीर संसार प्रकृति विभाग में आत्मा तथा परमात्मा पुरूष विभाग में है जैसे प्रकृति और पुरूष अनादि है ऐसे ही इनके भेदका ज्ञान अर्थात विवेक भी अनादि है अत विवेक दृष्टि से देखे तो ये दोनो विभाग एक दुसरे से बिलकुल असम्बद्ध है
विकृतिमात्र जडं मे ही होती है चेतन मे नही वास्तव मेअपने को सुखी दुःखी मानना चेतन स्वभाव है चेतनसुखी दुखी नही होता प्रत्युत सखाकार व दुखाकार वृत्ति से मिलकर अपने को सुखी दुःखी मान लेता है
चेतन मे एक दुसरे से विरूद्ध सुख दुखरूप दो भाव हो ही कैसे सकते है
दो भाव परिवर्तनशील प्रकृति मे ही हो सकते है जो अपरिवर्तनशील है उसके दो भाव अथवा दो रूप हो ही नही सकते चेतन स्वमंज्यो का त्यो रहते हुए भी परिवर्तनशील प्रकृति संगसे उन विकारों को अपने मे आरोपित करता रहता है
ईश्वर शक्तिमान है प्रकृति उनकी शक्ति है ज्ञानकी दृष्टि से शक्ति और शक्तिमान दोनो अलग अलग है क्योकि शक्ति मे परिवर्तन होता रहता है पर शक्तिमान ज्यों का त्यों रहता है परन्तु भक्ति की दृष्टि से देखे तो शक्ति और शक्ति मान दोनो अभिन्न है क्यो कि शक्ति को शक्तिमान से अलग नही कर सकते अर्थात शक्तिमान के बिना शक्ति की स्वतन्त्र सत्ता नही है
ज्ञानऔर भक्ति दोनो की बात रखनेके लिये ही भगवान ने प्रकृति को नअनन्त कहा है न सान्त प्रत्युत अनादि कहा गया है कारण कि यदि प्रकृति को अनन्त नित्य कहें तोज्ञान का खण्डन हो जायेगा क्योकि ज्ञान की दृष्टि से प्रकृति की सत्ता नही है यदि प्रकृति को सान्त अनित्य कहे तो भक्ति का खण्डन हो जायेगा
क्योकि भक्ति की दृष्टि से प्रकृति भगवान की शक्ति होने से भगवान सेअभिन्न है